पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६९१

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रामचरित मानस । कहत गम-गुन-गन अनुराये । सब निज भाग सराहन लागे । हम सम पुन्य-पुज जग थोरे। जिन्हहि राम जानत करि मोरे ॥४॥ प्रेम से रामचन्द्रजी के गुण-समूह कहते हुए सब अपना भाग्य सराहने लगे। कहते हैं कि हमारे समान पुण्य की राशि जगत में थोड़े लोग होने कि जिन्हें रामचन्द्रजी अपना करके जानते हैं ॥४॥ दो०--प्रेम मगन तेहि समय सब, सनि आवत मिथिलेस । सहित समा सम्सम उठेउ, रविकुल-क्रमल-दिनेस ॥२७॥ उस समय सब प्रेम में मग्न है, मिथिलेश्वर को प्राते सुन सूर्यकुल रूपी कमल के सूर्य रामचन्द्रजी सभा के सहित उतावली से उठे ॥२७॥ चौ०-आइ सचिन गुरु पुरजन साथा । आगे गवन कीन्ह रघुनाथा । गिरिबर,दीख जनक पति जबहीँ। करि प्रनाम रथ त्यागेउ तयहीं ॥१॥ भाई, मन्त्री, गुरू और पुरजनों के साथ रघुनाथजी भागे गमन किये। राजा जनक ने ज्यों ही गिरिश्रेष्ठ (कामतानाथ) को छेना, त्यो ही प्रणाम करके रथ त्याग दिया ॥१॥ राम-दरस लालसा उछाहू । पथ-सम लेस कलेस न काहू ॥ मन तहँ जहँ रघुबर बैदेही । बिनु मल तन दुख-सुख सुधि केही ॥२॥ रामचन्द्रजी के दर्शन की लालसासे उत्साहित किसी को रास्ते की थकावट का लेशमात्र भी क्लेश नहीं है । मन वहाँ है जहाँ रघुनाथजी और जानकीजी हैं, विना मन के शरीर के दुश्मा सुख की खबर किसको हो ? ||२॥ पूर्वार्द्र में यह कहा गया कि राम-दर्शन की लालसा से उत्साहित लोगों को ज़रा भी गस्ते को कष्ट नहीं मालूम होता है। इसके समर्थन में हैतुसूचक घात कहना कि मन शरीर मैं नहीं है बिना मन के देह के सुख दुःख का ज्ञान किसको हो 'काव्यलिंग अलंकार है आवत जनक चले एहि भाँती। सहित समाज प्रेम-मति भाँती ॥ आये निकट देखि अनुरागे । सादर मिलन परसपर लागे ॥३॥ इस तरह समाज के सहित प्रेम में मति मतवाली हुई जनकजी चले आते हैं। पास में श्राये देख कर प्रीति-पूर्वक अादर के साथ आपस में (एक दूसरे से) मिलने लगे ॥शा लगे जनक मुनिजन-पद बन्दन । रिषिन्ह प्रनाम कीन्ह रघुनन्दन । भाइन्ह सहित राममिलि राजहि । चले लेवाइ समेत समाजहि ॥४॥ जनकजी मुनिजनों के चरणों की बन्दना करने लगे और रघुनाथजी ने ऋषियों को प्रणाम किये । भाइयों के सहित रामचन्द्रजी राजा से मिल कर उन्हें समाज के समेत लिवा कर चले ॥