पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वितीय सोपाल, अयोध्याकाण्ड । ६३१ दो०-आखम-सागर खान्तरस, पूरन पावल-पाथ । सेन अनहुँ करूना-सरित, लिये जाहिँ रघुनाथ ॥२५॥ श्राश्रम रूपी समुद्र शान्त-रल रूपी पवित्र जल से भरा है। ऐसा मालूम होता है मानों जनकराजां की मण्डली करुणा की नही है, उसको रघुनाथजी लिये जाते हैं ॥२७॥ चौo-बारति ज्ञान-विराग करारे । बचन ससाक मिलत नद नारे ॥ सोच उसास समीर तरङ्गा । धीरज सट तरूबर कर अङ्गा ॥१॥ शान और वैराग्य रूपी किनारों को डुबो दिया, शोकयुक्त पचन नद और नाले रूप मिलते हैं । लम्बी साँसें वायु रूप तथा सोच लहर रूपी है, धीरज रूपी किनारे के वृक्ष को गिराती जाती है ॥१॥ खूब बढ़ी हुई नदी और करुणानदी का कविजी ने साझोपाङ्ग रूपक बाँधा है। जैसे नंदी के दो किनारे होते हैं, बीच बीच में नदी नाले मिलते हैं, हवा बहती है,लहरें उठती हैं और तीर के पेड़ ढहते हैं । यही सब ऊपर करुणा नदी के दिखाये गये हैं।

बिषम बिषाद तोरावति धारा । मय मम भंवर अवर्त अपारा।

केवट-बुध बिदा बडि नावा । सकहि न खेइ अइक नहिँ आवा ॥२॥ भीषण विषाद तोड़नेवाली धारा है, भय रूपी भँवर और भ्रम रूपी अपार हरहरा शब्द है। विद्वान मलाह रूप है और विद्या बड़ी नाव रूपी है, वे ने नहीं सकते अधिक बाढ़ से अटकल नहीं पाता है ॥२॥ बनचर कोल किरात बिचारे । धके बिलोकि पथिक हिय हारे ॥ आत्रम-उदधि मिली जब जाई। अनहुँ उठेउ अम्बुधि अकुलाई ॥३॥ वन के विवरनेवाले बेचारे कोल किरात रूपी यात्री बाढ़ देख हृदय में हार कर टिक गये (पार नहीं जा सकते)। जब यह नदी जा कर प्राक्षम रूपी समुद्र में मिली, ऐसा मालूम होता है मानों तब समुद्र खलबला उठा ॥३॥ सोक सिकल दोउ राज-समाजा। रहा न ज्ञान न धीरज लाजा ॥ साही। रोवहि सोक-सिन्धु अवगाही ॥४॥ दोनों राज-समाज शोक खे व्याकुल हो गये। न किसी में ज्ञान रहा, न धीरज और लज्जा रह गई । राजा दशरथजी के रूप, गुण और शील की सराहना करके शोक रूपी समुद्र में डूब कर रोते हैं। हरिगीतिका-छन्द । अवगाहि सोक-समुद्र सोचहि, नारि नर व्याकुल महा। दै दोष सकल सरोष बोलहि, बाम बिधि कीन्हो कहा। भूप-रूप-गुन-सील