पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६९३

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रामचरितमानस सुर सिद्ध तापस जोगि-जन मुनि, देखि दसा बिदेह की। तुलसी न समरथ कोउ जो तरि, सकइ सरित सनेह की ॥११॥ शोक के सागर में डूब कर महा व्याकुलता से स्त्री-पुरुप सोचते हैं। सब क्रोध से विधाता को दोष देकर कहते हैं कि कुटिल ब्रह्मा ने यह क्या किया? देवता, लिमतपस्त्री, योगाजन और मुनि लोग राजा विदेह की दशा देख कर-तुलसीदासजी कहते हैं कि स्नेह रूपी नदी को पार करने में कोई भी समर्थ नहीं जो उस पार जा सके ॥११॥ 'वाम-विधि' प्रस्तुत अर्थ के अतिरिक अप्रस्तुत ब्रह्मा की स्त्री सरस्वती का अर्थ निकलना 'लमालोक्ति 'अलंकार' है। सी-किये अमित उपदस, जह तहँ लोगन्ह मुनिबरन्ह । धीरज 'धरिय नरेस, कहेउ बसिष्ठ बिदेह सन ॥२६॥ जहाँ तहाँ लोगों को मुनिवरों ने विविध उपदेश किये । वशिष्टजी ने राजा जनक से कहा कि-राजन् ! धीरज धरिये ॥२७॥ चौ० जासु ज्ञान रवि भव-निसि नासा। बचन किरनमुनि-कमल बिकासा॥ तेहि कि माह मेलता नियराई। यह सिय-रामसनेह बड़ाई ॥१॥ जिनके शान रूपी सूर्य से संसार रूपी रात्रि का नाश हो जाता है और जिनके वचन रूपी किरणों से मुनि रूपी कमल मिलते हैं। क्या उनके समीप मोह और ममत्व आ सकता है १ (कदापि नहीं ) यह सीताजी तथा रामचन्द्रजी के स्नेह को घनाई है nen विषयी साधक लिख सयाने। त्रिविधि जीव जग बेद बखाने । रास-संनेह-सरस लन जासू। साधु सभा बड़ आदर तासू ॥२॥ विषयी, साधक और लिद्ध तीन प्रकार के सयाने जीव संसार में वेदों ने कहे हैं। जिसका मम रामचन्द्रजी के स्नेह में रसीला है, उसका साधुमण्डली में बड़ा आदर होता है ॥२॥ साह न राम-प्रेम बिनु ज्ञानू । करनधार बिनु जिमि जलयानू ॥ मुनि बहु बिधि बिदेह समुशाये। रामघाट सब लोग नहाये ॥३॥ रामचन्द्रजी के प्रेम के बिना ज्ञान नहीं सोहता, जैले विना मल्लाह के जहाज़ । मुनि वशिष्ठजी ने राजा जनक को बहुत तरह समझाया, तय सब लोग रामघाट में स्नान किये ॥३॥ सकल सोक-सङ्कुल नर नारी । सो बासर बोतेउ बिनु बारी । पसु-खग-सुगन्ह न कीन्ह अहारू। प्रिय परिजन कर कवन बिचारू ॥४॥ सम्पूर्ण स्त्री-पुरुष शोक से भरे हैं, वह दिन चिना जलपान के बीता। जब पशु, पक्षी और मृगों ने श्राहार नहीं किया, तब प्रिय कुटुम्चियों का कौन सा विचार है ? ॥४॥ जय पशु पक्षियों ने कुछ नहीं खाया, तब कुटुम्बियों का क्या कहना 'कायापति अलंकार है।