पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६९४

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, द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । दो-दोउ समाज निलिराज रघु, राज नहाने प्रात । बैठे सब बट बिटप तर, मन मलीन इस गात ॥२७॥ निमिराज और रघुराज दोनों समाज प्रात:काल स्नान करके सब बड़-वृक्ष के नीचे बैठे, उनके मन उदास और अन दुधले हैं ॥२७॥ चौ०-जे महिसुर दसरथ पुर बासी । जे मिथिलापति नगर निवासी ॥ हंसबंस गुरु जनक पुरोधा । जिन्ह जग मग परमारथ साधो ॥१॥ जो अयोध्यावासी सोमण हैं और जो राजा जनक के नगर के निवासी हैं । सूर्यकुल के गुरु वशिष्ठजी और जनकजी के पुरोहित शतानन्द, जिन्हों ने संसार में परमार्थ का मार्ग हद डाला है। लगे कहन उपदेल अन्नेका । सहित धरम नय बिरति बिबेका ॥ कासिक कहि कहि कथा पुरानी। समुझाई सब समा सुबानी ॥२॥ धर्म, नीति, वैराग्य और धान से पूर्ण अनेक प्रकार के उपदेश कहने लगे । विश्वामित्रजी ने पुरानी कथायें कह कह कर सारी सभा को अच्छी वाणी से समझाया ॥२॥ तब रघुनांध कैासिकहि कहेऊ । नाथ कालि जल बिनु सब रहेऊ । मुनि कह उचित कहत रघुराई । गयउ बीसि दिन पहर अढ़ाई ॥३॥ तष रघुनाथजी ने विश्वामित्रजी से कहा-हे नाथ! कल सब कोई बिना जल के (निर्जल व्रत) रहे हैं। मुनि ने कहा रघुनाथजी ठीक कहते हैं, ढाई पहर दिन बीत गया है (अब सय को जलपान करना चाहिये) ॥३॥ रिषि रुख लखि कह तिरहुति राजू । इहाँ उचित नहिँ असन अनाजू ॥ कहा भूप भल सबहि सुहाना । पाइ रजायसु चले महामा nen विश्वामित्रजी का रुख देख कर जनकजी ने कहा, यहाँ अन्न भोजन करना उचित नहीं . हैं। यह बात सभी को सुहायो कि रोजा ने अच्छी बात कही, आशा पा कर सब लोग स्नान करने चले ॥ दो०- तेहि अवसर फल फूल दल, मूल अनेक प्रकार । लइ आये बनचर बिपुल, अरि भरि काँवरि भार ॥२८॥ उस समय अनेक प्रकार के फल, फूल, पत्ते और जड़ों के बहुत से बोझ बहँगियों में भर भर कर बनचर (कोल भील आदि) ले आये ॥२७॥ . 20