पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६९५

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रामचरित मानस । चौ-कामद मे गिरि रामप्रसादा । अवलोकत अपहरत विषादा । सर सरिता बन भूमि विभागा। जन उमगत आनंद अनुरागा ॥१॥ रामचन्द्रजी की कृपा से पर्वत कामना का देनेवाला और दर्शन से दुःख का हरनेवाला हुआ है। तालाब, नदी, वन और धरती का भाग सब ऐसे मालूम होते हैं मानों पानन्द और प्रेम उनमें उमड़ता शे॥१॥ श्रानन्द और अनुराग जल नहीं है जो उमड़ता हो, यह केवल कवि की कल्पनामाव 'अनुक्त विषया वस्तूप्रेक्षा अलंकार है। बैलि बिटप सब सफल सफूला। बोलत खग मृगं अलि . अनुकूला ॥ तेहि अवसर बन अधिक उछाहू । त्रिविधि समीर सुखद सब काहू ॥२॥ लता और वृक्ष सब फले फूले हैं, पक्षी, मृग और मवरे सुहावनी बोली बोलते हैं। उस समय वन में बड़ा उत्साह है, सब को सुख देनेवाली तीनों प्रकार की शीतल, मन्द, सुगन्धित) हवा बहती है ॥२॥ जाइन बनि मनोहरताई। जनु महि करति जनक पहुनाई ।। तब सब लोग नहाइ नहाई । राम-जनक-मुनि आयसु पाई ॥३॥ यह सुन्दरता वर्णन नहीं की जा सकती, ऐसा मालूम होता है मानों वसुन्धरा जनकजी की मेहमानी करती हो। तब सब लोग नहा नहा कर और रामचन्द्रजी, जनकजी, वशिष्ठमुनि की नाझा पाकर ॥३॥ जल पृथ्वी पहुनाई नहीं कर सकती, यह प्रसिद्ध आधार है । इस अहेतु को हेतु ठहराना 'अलिद्धविषया हेतूत्प्रेक्षा अलंकार है । राजापुर की प्रति में इस चौपाई का दूसरा और तीसरा चरण लेख प्रमाद ले लिखने में छूट गया है। मालूम होता है कि उस प्रतिलिप को गोस्वामी जी ने किसी कथा प्रेमी रामभक्त के लिये तैयार की, किन्तु लिखने के पीछे उसका संशोधन नहीं कर सके । चौपाइयों के छूटने का यही कारण प्रतीत होता है। काशीजी की प्रति में जो चौपाइयाँ हैं और जिनके बिना प्रसंग में त्रुटि झकलती है, उनका इस प्रति में न रहना भूल से छूटने के सिवा धौर क्या कहा जा सकता है ? देखि देखि तरुबर अनुरागे । जहँ तहँ पुरजन उतरन लागे । दल फल मूल कन्द बिधि नाना । पावन सुन्दर सुधा. समाना ॥४॥ वृक्ष देख देख कर प्रीति से जहाँ तहाँ जनकपुर निवासी उतरने लगे। शाक, फल, मूल और नाना प्रकार के कन्द पवित्र सुन्दर अमृत के समान मोठे ॥४॥ दो-सादर सब कहँ राम-गुरु, पठये भरि मरि भार। पूजि पितर सुर अतिथि गुरु, लगे करन फलहार ॥२७॥ रामचन्द्रजी के गुरु वशिष्ठजी ने आदर के साथ बोझो में भर भर कर भेजे । पितर, देवता, अतिथि और गुरु की पूजा करके फलहार करने लगे ॥२७80