पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६९६

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ६३५ चौर-एहिबिधि बासर बोते चारी । राम निरखि नर नारि सुखारी ॥ दुहुँ समाज असि रुचि मन माहीं । बिनु सिय-राम फिरब भलनाहीं॥१॥ इस तरह चार दिन बीत गये, रामचन्द्रजी को देख कर स्त्री-पुरुष प्रसा हैं। दोनों समाजों के मन में ऐसी इच्छा है कि बिना सोताजी और रामचन्द्रजी के लौटना अच्छा नहीं ॥१॥ सीताराम सङ्क अन-बासू । कोटि अमरपुर सरिस सुपासू॥ परिहरि लखन-राम-बैदेही। जेहि घर भाव बाम बिधि तेही ॥२॥ सीताजी और रामचन्द्रजी के साथ वन में रहना करोड़ इन्द्रपुरी के समान-सुख दायी है। लक्ष्मणजी, रामचन्द्रजी और जागकीजी को छोई फर जिसको घर सुहाने उस पर विधाता टेढ़े हैं ॥२॥ दाहिन दइउ होइ जब सबहीं। राम समीप बसिय बन तबहीं । मन्दाकिनि मज्जन तिहुँ काला। रामदरस सुदमङ्गलमाला ॥३॥ जय सभी तरह देव अनुकूल हो, तभी रामचन्द्रजी के समीप वन में रहना होगा। तीनों काल मन्दाकिनी गंगा में स्नान और रामचन्द्रजी का दर्शन आनन्द-मंगल की राशि है ॥३॥ अटनरामगिरिन तापस थल । असन अमिय सम कन्ह मूल फल । सुख समेत सम्बत दुइ साता । पल सम होहि न जनियहि जाता ॥ रामचन्द्रजी के पर्वत, वन और तपस्वियों के स्थल में घूमना तथा अमृत के समान कन्द मूल, फलों के भोजन । इस तरह चौदह वर्ष सुख सहित पल के समान होंगे, बीतते मालूम न होगा ॥४॥ दो०--एहि सुख जोग न लोग सब, कहहिँ कहाँ अस भाग। सहज सुभाय समाज दुहुँ, राम-चरन अनुराग ॥२८॥ सब लोग कहते हैं कि इस सुख के योग्य हमारा ऐसा भाग्य कहाँ है ? इस प्रकार सहज सुभावहा दोनों समाज में रामचन्द्रजी के चरणों में प्रेम है ॥२०॥ चौ०-एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। बचन सप्रेम सुनत मनहरहीं। सीय मातु तेहि समय पठाई । दासी देखि सुअवसर आई ॥१॥ इस तरह सब मनोरथ करते हैं, उनके प्रेम-युक्तं वचन सुननेवालों के मन को हरते हैं। सीताजी की माता ने उस समय दासी को भेजा, वह जा कर अच्छा समय देख भाई ॥२॥ सावकास सुनि सब सियसासू । आयउ जनकराज रनिवासू ॥ कौसल्या सादर सनमानी। आसन दिये समय सम आनी ॥२॥ सीताजी की लब सासुओं को अवकाश में सुन कर राजा जनक का रनिवास उनले 1