पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७०

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । चौo-मनि-मानिक-मुकता-छबि जैसी।अहि-गिरि-गज-सिरसाहनतैसी। नृप-किरीट तरुनी-तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई ॥१॥ मणि, माणिक और मोती की जैसी शोमा होनी चाहिए, वैसी छवि साँप, पर्वत और हाथी के मस्तक में नहीं होती। राजाओं के मुकुट और नवयौवना स्त्रियों के अङ्ग को पाकर वे सब अधिक शोभा को प्राप्त होते हैं ॥१॥ तैसेहि सुकबि कबित बुध कहहीं । उपजहिँ अनत अनत छबि लहहीं॥ भगति-हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई ॥२॥ उसी तरह सत्कवियों के काव्य को विद्वान लोग कहते हैं कि वह पैदा और जगह होता है, परन्तु शोभा अन्यत्र हो पाता है। (जब कवि काव्य करने के लिए) सरस्वती का स्मरण करता है, तय उसकी भक्ति के कारण ब्रह्मलोक छोड़ कर थे उसके पास दौड़ कर आ जाती हैं ॥२॥ रामचरितसर , बिनु अन्हवाये । सो सम जाइ न कोटि उपाये ॥ कबि कोबिद अस हृदय बिचारी । गावहिं हरिजस कलिमल-हारी ॥३॥ विना रामचरितमानस में स्नान कराये वह थकावट करोड़ों उपायों से भी नहीं जाती, कवि और विद्वान ऐसा मन में विचार कर कलि के पापो के हरनेवाले भगवान का यश- 'गान करते हैं ॥३॥ कीन्हे प्राकृत-जन गुनगाना । सिर धुनि गिरा लगति पछिताना । हृदय-सिन्धु मति-सीपि समाना। स्वाती-सारद कहहिँ सुजाना ॥ ४ ॥ "संसारी मनुष्यों का गुणगान करने से सरस्वती सिर पीट कर पछताने लगती है। चतुर लोग कवि के हृदय को समुद्र, बुद्धि को सीपी और सरस्वती को स्वाती नक्षत्र के समान कहते हैं। जौं बरषद बर-बारि बिचारू । होहि कबित-मुकता-मनि चारू ॥५॥ यदि श्रेष्ठ विचार रूपी जल की वर्षा हो, तो कविता रूपी सुन्दर मोती और मणि उत्पन होते हैं ॥५॥ दो-जुगुति बेधि पुनि पोहियहि, रामचरित घर ताग । पहिरहिँ सज्जन बिमल उर, सोभा अति अनुराग ॥ ११ ॥ युक्ति रूपी सूई से छेद कर फिर रामचरति रूपी सुन्दर तागे से पिरो कर माला बनावे, जिसको सज्जन लोग अपने स्वच्छ हृदय में पहने तो उत्तम प्रेमरूपी शोभा होती है ॥ ११ ॥ सज्जन लोग बड़े प्रेम से हृदय में धारण करें, तब कविता की यथार्थ शोमा होती है, यह व्यङगार्थ वाच्याथे के बराबर होने से तुल्यप्रधानगुणीभूत व्यङ्ग है। 1