पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७००

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1 द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । सब रनिवास बिथकि लखि रहेऊ । तब धरि धीर सुमित्रा कहेऊ ॥. । देवि दंड जुग जामिनि बीती । राम-मातु सुनि उठी सप्रीती ॥en सब रनिवास को विमोहित हुधा देख तब सुमिनाजी ने धीरज धर ,कर कहा-हे देवि ! दो घड़ी रात बीत गई, यह सुन कर रामचन्द्रजी की माता प्रीति से उठ खड़ी हुई ॥५॥ देव-बेगि पाउ धारिय चलहि, कह सनेह सतिमाय । हमरे तो अब ईस-गति, कै मिथिलेस सहाय ॥२८॥ कौशल्याजी ने स्नेह के साथ सच्चे भाव से कहा-आप शीघ्र ही डेरे को पदार्पण करें। हमारे तो अब शिवजी की गति है या मिथिलेश्वर की सहायता का भरोसा है ॥२an या तो ईश की गति या मिथिलेश्वर की सहायता 'विकल्प अलंकार' है। चौ०-लखि सनेह सुनि बचन बिनीता। जनक-प्रिया गहि पाय पुनीता ॥ देबिउचित असि जिलय तुम्हारी। दसरथ-घरनि राम-महतारी ॥१॥ फौशल्याजी के स्नेह को लखकर और उमझे बिनीत बनों को सुन जनकजी की भियतमा ने उनके पवित्र चरणों में पड़कर कहा- हे देवि ! श्राप को ऐसी प्रार्थना उचित ही है, क्योंकि आप महाराज दशरथजी की भार्थ्या. और रामचन्दजी की माता हैं ॥१॥ प्रभु अपने नीचहु आदरही । अगिनि-धूम गिरि-सिर-तुन घरहीं । सेवक राउ करम-मन-बानी । सदा सहाय महेस भवानी ॥२॥ स्वामी अपने नीचजन का भी प्रादर करते हैं, अग्नि धुओं को शौर पर्वत तृण को सिर पुर रखते हैं। राजा मन, कर्म, पवन ले श्राप के सेवक हैं और सहायक तो शिव-पार्वतीजी घड़े लोग अपने लघुजनों का भी आदर करते हैं, यह उपमेय वाक्य है । भग्नि धुआँ और पर्वत तृण सिर पर रखते हैं। दोनों उपमान वाक्य है । दोने वाक्यों में बिना वाचक पद के विश्व प्रतिविम्ब भाव झलकना 'उष्टान्त अलंकार है। रउरे अङ्ग जोग जग को है। दीप सहाय कि दिनकर साहैं । राम जाइ बन करि सुरकाजू । अचल अवधपुर करिहहिँ राजू ॥३॥ आप को बराबरी के योग्य संसार में कौन है ? क्या सूर्य की सहायता के लिये दीपक शोभा दे सकता है। (कदापि नहीं)। रामचन्द्र वन में जोकर देवताओं का कार्य करके अयोध्यापुरी में अटल राज्य करेंगे ॥३॥ अमर नाग नर राम-बाहु-बल । सुख बसिहहिँ अपने अपने थल ॥ यह सब जागबलिक कहि राखा । देबि न होइ.मुधा मुनि भाखा ॥४॥ रामचन्द्राके बाहुबल से देवता, नाग और मनुष्य अपने अपने स्थान में सुख से निवास करेंगे। हे देवि यह सब याशवल्क्य मुनि ने कह रखा है, उनकी वात भूठ न होगी ॥४॥ है ।।२॥