पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७०१

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६४० रामचरित मानस । दो-अस कहि पग परि प्रेम अति, सिय हित विनय सुनाइ । सिय समेत लिय-मातु तब, चली सुआयसु पाइ ॥२८॥ ऐसा कह बड़े प्रेम से पाँच पर पड़ कर सीताजी के लिये विनती की। सुन्दर प्रामा पाकर सीताजी की माता सीताजा सहित डेरे को चली ॥२५॥ चौक-प्रिय परिजनहि मिली बैदेही । जो जेहि जोग भाँति तेहि तेही। लापस बेष जानकी देखी। सा सब बिकल बिषाद बिसेखी ।।१।। प्रिय कुटुबीजन जो जिस योग्य थे उनसे उसी तरह जानक्षीजी मिली ! जानकोजी को तपस्विनी के वेश में देख कर सब विशेष विपाद से व्याकुल हो गये ॥१॥ जनक राम-गुरु आयसु पाई । चले थलहि सिय देखी आई। लीन्ह लाइ उर जनक जानकी । पाहुनि पावन प्रेम प्रान की ॥२॥ राजा जनक वशिष्ठजी की भाशा पाकर चले और डेरे मेंा कर लीताजी को देखा। जनकजी ने जानकीजी को हृदय से लगा लिया, वे प्रेम रूपी प्राण की पवित्र मेहमान हैं ॥२॥ उर उमगेउ अम्बुधि अनुरागू । भयउ भूप मन मनहुँ पयागू ॥ सिय-सनेह-बट बाढ़ल जोहा । ता पर राम-प्रेम-सिसु सेाहा ॥३॥ हृदय में प्रेम रूपी समुद्र उमड़ पड़ा ऐसा मालूम होता है मानों राजा का मन प्रयाग हो गया हो। सीताजी के प्रति स्नेह सपी धड़का वृक्ष (अक्षयवट) बढ़ता हुआ देख पड़ता है और उस पर रामचन्द्रजी का प्रेम रूपी पालक (मुकुन्धभगवान) शोभित है |॥३॥ पुराणों की उक्ति के अनुसार प्रलय का जल उमड़ना, अक्षयवट का बढ़ना और उसके पो पर अकेले वाल रूप ले भगवान् का शयन करना प्रसिद्ध ही है। यह 'उक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार है। चिरजीवी-मुनि ज्ञान विकल जनु । बूड़त लहेंउ बाल-अवलम्बनु । मोह मगन मति नहि बिदेह की । महिमा सिय-रघुबर-सनेह की ॥४॥ ऐसो मालूम होता है मानो शान रूपो चिरजीवी (मार्कण्डेय) मुनि व्याकुल डूबते हुए बालक (राम-प्रेम रूपी मुकुन्द भगवान् ) का सहारा पा गये हों । विदेह राजा की बुद्धि अशान में मग्न नहीं है यह सीताजी और रघुनाथजी के प्रेम को बड़ाई है ॥४॥ ज्ञान और मार्कण्डेय मुनि राम प्रेम और बालमुकुन्द भगवान परस्पर उपमेय उपमान हैं। पुराणों के कथनानुसार ऐसी घटना हुई है। यह 'उक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार है। पुरावं में ऐसी कथा प्रसिद्ध है कि एक बार मार्कण्डेय ऋषि ने तपस्या करके आग्रह पूर्वक भगवान से परमाँगा कि मैं आपकी माया देना चाहता हूँ। तुरन्त प्रलयकाल का जल उमड़ा, उसमें मुनि बह चले । बहुत काल तक उसी जल में बहते फिरे, तब मुनि को बड़ी व्याकुलता हुई और मन ही मन भगवान की स्तुति को कि-प्रभो ! रक्षा कीजिये । प्रलयकाल में भी प्रयाग