पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७०२

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। द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ६४१ राज का नाश नहीं होता। ज्यों ज्यों प्रलय का जल बढ़ता है, त्यो त्यो अक्षयवट पानी के ऊपर उठता जाता है और उसके पत्ते पर बाल रूप से भगवान शयन करते हैं । अन्त में मुखि भगवान के चरणों का सहारा पाकर प्रसन्न हुए और माया का विस्तार दूर हो गया । फिर पूर्ववत मुनि अपने प्राश्रम में तप करने लगे। दो-सिय पितु-मातु सनेह बस, बिझल न सको सँभारि । धरनि-सुता धीरज धरेउ, समउ सुधरम मिचारि ॥२६॥ सीताजी पिता-माता के स्नेह वश व्याकुलावा को नहीं संभाल सकी । परन्तु क्षमा रूपिणी पृथ्वी की कन्या हैं, समय और स्वधर्म विचार कर धीरज धारण किया ॥२६॥ कारण रूप पृथ्वी और कार्य रूप सीताजी हैं। जब पृथ्वी क्षमाशील है तो उसकी कन्या धीरज धारिणी होना ही चाहिये । कारण के समान कार्य का वर्णन 'द्वितीय सम अलंकार' है। चौ०-तापल बेष जनक सिय देखी। भयउ प्रेम परितोष बिसेखी ॥ पुत्रि पमित्र किये कुल दोऊ । सुजस धवल जग कह सब को॥१॥ सीताजी को तपस्विनी वेष में देखकर जनकजी को प्रेम से विशेष सन्तोष हुआ और बोले । हे पुत्री ! तू ने दोनों कुलों को पवित्र कर दिया, तेरे विशुद्ध सुन्दर यश को संसार में सब कोई बखानते हैं । जिति सुरसरि कीरति-सरि तारी। गवन कीन्ह बिधि-अंड करोरी ॥ गङ्ग अवनि थल तीनि बड़ेरे । एहि किय साधु-समाज घनेरे ॥२॥ तेरी कीर्ति रूपी नदी ने गङ्गा को जीत लिया, क्योंकि इसने करोड़ों ब्रह्माण्डों में गमन किया है। गन्ना के पृथ्वी पर तीन बड़े स्थान (हरद्वार, प्रयागराज, गंगासागर) हैं, इस (कीर्ति नदी ) ने असंख्यों साधुसमाज बनाया है ॥२॥ अधिक अभेद रूपक अलंकार' है । गोजी एकही ब्रह्माण्डमें गमन करती हैं किन्तु कोतिरूपिणी नदी असंख्यों ब्रह्माण्ड में जा चुकी है । गला के तीन ही प्रसिद्ध स्थान हैं, इसने असंख्यों साधु-समाज बनाये, यही अधिकता है। पितु कह सत्य सनेह सुबानी। सीय सकुच महँ मनहुँ समानी। पुनि पितु मातु लोन्हि उर लाई ।सिख आसिष हित दोन्हि सुहाई ॥३॥ पिताजी स्नेह से सुन्दर सच्ची वाणी कहते हैं, खीताजी ऐसी मालूम होती है मानों सकुच (लाज) में समा गई ।। फिर पिता माता ने हृदय से लगा लिया, हितकारी शिक्षा और सुहावना आशीर्वाद दिया ॥३॥ सकुच कोई स्थान वा घर नहीं है जिसमें कोई समा सकता हो । यह कवि की कल्पना मान 'अनुक्तविषया बस्तस्प्रेक्षा अलंकार' है। , १