पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७०४

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । भरतजी के गुणों का ऐश्वर्या-उपमेय और गलाजी तथा अमृत-उपमान हैं। उपमान से उपमेय में अधिक गुण वर्णन करता 'व्यतिरेक अलंकार' है। दो०--निरवधि-गुन निरुपम-पुरुष, भरत भरत सम जानि । कहिय सुमेरु कि सेर सम, कजि-कुल-मति सकुचानि ॥८॥ उनके गुणों की सीमा नहीं, वे उपमान रहित पुरुष है, भरत के समान भरत ही को जानना चाहिये । पया सुमेरु पर्वत को लेर (८० रुपये भर का पत्थर का बटखरा) के समान कहा जा सकता है। इसी से कवि कुल की बुद्धि लज्जित हो गई ॥२॥ भरत के समान भरत ही हैं, यह 'अनन्वय अलंकार है। चौ०-अगम सहि बरनत बर बरनी। जिमि जल-हीन मीन गम धरनी॥ भरत अमित महिमा सुनु रानी । जानहि राम न सकहिं बखानी॥१॥ हे श्रेष्ठवर्णवाली प्रिये ! यह वर्णन करने में ससी को दुर्गम है । जैसे बिना जल के मछली का धरती पर चलना । हे रानी! सुनो, भरत को अपार महिमा को रामचन्द्र जानते हैं, परन्तु कहना चाहे तो तो वे भी नहीं खान कर सकते ॥१॥ वाव्यसिद्धार गुणीभूत व्यक है कि रामचन्द्रजी सर्वश होने से उस महिमा को जानते हैं, परन्तु अपार होने से वे भी नहीं कह सकते। बरनि सप्रेम भरत अनुमाऊ । तिय जिय की रुचि लखि कह राऊ । बहुरहिँ लखन भरत बन जाही। सब कर मल सब के मन माहीं ॥२॥ प्रीति के साथ भरतजी के प्रभाव को वर्णन कर स्त्री के जी की इच्छा लख कर राजा कहते हैं कि लक्ष्मण लौट चलें और भरत वन को जाँय, इसमें सब की भलाई है, यहा सब के मन में है (मैं भी ऐसा ही चाहता हूँ )२॥ देबि परन्तु भरत रघुबर की। प्रीति प्रतीति जाइ नहिँ तरकी। भरत अवधि सनेह ममता की। जदयपि राम सीम समता की ॥३॥ परन्तु हे देवि ! भरत और रघुनाथ की प्रीति तथा विश्वास की विवेचना (दतील) नहीं की जा सकती । यद्यपि रामचन्द्र समता के हद हैं, तो भी भरत उनके स्नेह और ममता की अवधि हैं ॥२॥ परमारथ स्वास्थ सुख सारे । भरत न सपनेहुँ मनहुँ निहारे । साधन सिद्धि राम-पग-नेहू । मेाहि लखि परत भरत मत एहू ॥४॥ परमार्थ और स्वार्थ सम्बन्धी समस्त सुखों को भरत ने सपने में भी भन सेनहीं निहाय। मुझे भरत का सिद्धान्त यही लख पड़ता है। कि सब साधनों की सिद्धि (मन वाञ्छित फल का मिलना) रामचन्द्र के चरणों का स्नेह है ॥४॥ '