द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । चौ०-सा सुख करम धरम जरि जाऊ। जहँ ल राम-पद-पङ्कज भाऊ॥ जोग कुजोग ज्ञान अज्ञानू । जहँ नहिँ राम प्रेम परधानू ॥१॥ वह सुख, कर्म और धर्म जल जाय जहाँ रामचन्द्र के चरण कमलों में प्रीति न हो। वह योग कुयोग है और शान अशान है जहाँ रामचन्द्र के प्रति प्रेम की प्रधानता नहीं है ॥१॥ सुख, कम, धर्म योग और शान अादरणीय वस्तु हैं, परन्तु रामचन्द्रजी के चरण-कमलों में प्रीति के विना अनादर योग्य ठहराना तिरस्कार अलंकार है। तुम्ह बिनु दुखी सुखो तुम्ह तेही । तुम्ह जानहु जिय जो जेहि केही ॥ राउर आयसु लिर सबही के । बिदित कृपालहि गति सब नोके ॥२॥ जो श्राप बिना दुःखी और आप ही ले सुखी रहते हैं, जिसके जी में जो है वह आप जानते ही हैं । श्राप की शाज्ञा सभी के सिर पर है, हे कृपालु ! श्राप को सब की गति अच्छी तरह मालूम है ॥२॥ यहाँ लक्षणामूलक गूढव्य है कि आप के धर्मवत पालन में ( भरत या जनक) कोई भी बाधक न हागे । आप की आशा शिरोधार्य करेंगे, यह श्राप को अच्छी तरह शात है। आपु आखमहिं धारिय पाऊ। अयउ सनेह सिथिल मुनिराऊ । करि प्रनाम तब राम सिधाये। रिषि धरि घोर जनक पहिँ आये ॥३॥ आप प्राधम में पधारिये, यह कह कर मुनिराज स्नेह से शिथिल हो गये। तब प्रणाम करके रामचन्द्रजी चले आये और वशिष्ठजी धीरज धर कर राजा जनक के पास गये ॥३॥ राम बचन गुरु नृपहि सुनाये । सोल सनेह सुभाय सुहाये ॥ महाराज अब कीजिय साई । सब कर धरम सहित हित हाई ॥४॥ गुरुजी ने शील और स्नेह से भरे लहज सुदावने रामचन्द्रजी के वचन राजा को सुनाये और कहा-महाराज ! अब वही कीजिये जिसमें सब का धर्म के सहित कल्याण हो अर्थात् हित भी हो और धर्म भी बना रहे ॥४॥ दो०-ज्ञान-निधान सुजान सुचि, धरम धीर नरपाल । तुम्ह बिनु असमजल समन, को समरथ एहि काल ॥२१॥ शान के मन्दिर, चतुर, पवित्र धर्मवाले, धीरवानराजा, श्राप के बिना इस लमय असमञ्जस 'मिटाने में कौन समर्थ है ? ॥२१॥ असमास मिटाने के लिये एक शान निधान हाना पथ्याप्त कारण है। तिस पर सुजान, 'सुचिधर्म, धैर्यवान, राजा, आदि अन्य प्रबल हेतुओं का विद्यमान रहना 'द्वितीय समुश्चय अलंकार' है।