पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७०९

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रामचरित मानस । नहीं जाता: ऐसी अद्भुत वाणी है। राजा जनक, भरतजी, वशिष्टमुनि श्रीन साधु-मण्डली जहाँ देवता रूपी कुमुद- वन के चन्द्रमा (रामचन्द्रमी) हैं, वहाँ गये ॥२॥ सुनि सुनि सोच जिकल सब लोगा। सनहुँ मोन-गन नव जल जोगा। देव प्रथम कुल गुरु गति देखी । निरखि बिदेह सनेह बिसेखी ॥३॥ इस (सभा की) .खबर को सुन कर सब लोग सोच से विकल है, ऐसा मालूम होता है मानो मछलियों का समूह नवीन जल के संयोग से व्याकुल हो । देवता पहले कुलगुरु वशि- पठजी की दशा देखी, फिर विदेहजी के विशेष स्नेह को लखा ॥३॥ राम-अगति-लय भरत निहारे । सुर स्वारथी हहरि हिय हारे । सब कोउ राम-प्रेम-लय पेखा। भये अलेख सोच बस लेखा ॥४॥ रामचन्द्रजी की भक्ति में लीन भरतजी को निहारा, अपने मतलबी देवता डर कर हत्य में हार गये। लब किसी को रामचन्द्रजी के प्रेम में तत्पर देखा, इससे देवता अनन्त सेोच के अधीन हुए ॥४॥ लेखा अलेख सोच वश हुए 'पदार्थावृत्ति दीपक अलंकार' है। देश-राम सनेह सकोच बस, कह ससोच सुरराज । रचहु प्रपउधहि पञ्च मिलि , नाहिँ त भयउ अकाज ॥२९४॥ देवराज-इन्द्र सोच से कहते हैं कि रामचन्द्रजी स्नेह और सकोच के वश में हैं (यहाँ सद प्रेमी और सकोची इकट्ठे हुए हैं) सब पञ्च मिल कर छल का विस्तार करो, नहीं ते! अकाज श्री ॥२४॥ चौ०-सुरन्ह सुमिरि सारदा सराही । देवि देव सरनागत पाही । फेरि अरत-मति करि निज माया । पालु बिबुध-कुल करिछलछाया ॥१॥ देवताओं ने सरस्वती का स्मरण कर स्तुति की, (वे ब्रह्म लोक से आई, इन्द्र ने कहा) हे देवि ! हम सव देवता आप की शरण श्राये हैं, रक्षा कीजिये। अपनी माया से भरत की बुद्धि फेर कर छल की छाँह करके देव-कुल का पालन कीजिये ॥२॥ विबुध बिनय सुनि देबि सयानीं । बोली सुर स्वारथ जड़ जानो। मो सन कहहु भरत मति फेरू । लोचन सहस न सूझ सुमेरू ।। २॥ देवताओं की विनती सुनकर और उन्हें स्वार्थ में मूर्ख हुए समझ कर चतुर देवि बोली। मुझसे कहते हो कि भरत की बुद्धि पलट दो ! हज़ार आँख से भी. तुम्हें सुमेरु-पर्वत नहीं सूझता है? ॥२॥ सरस्वती का प्रस्तुत वर्णन तो यह है कि हे इन्द्र भरतजी की महिमा तुम्हें अब भी नहीं देख पड़ी कि गुरुवशिष्ठ, योगिराज जनक और परमात्मा रामचन्द्र उनकी भक्ति के वश में