पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७१०

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । हुए हैं। इसे न कह कर उसका प्रतिविम्ब माम कहना कि एजार नेत्र से सुमेरु नहीं सूझता 'लखित अलंकार' है। विधि-हरि-हर माया बडि भारी । सोउ न भरत-मति सका निहारी ॥ सो मति मोहि कहत करु भारी । चन्दिनि कर कि चंडकर चोरी ॥३॥ घला, विष्णु और महेश की माया बहुत पड़ी है, वह भी भरतजी की बुद्धि की ओर नहीं निहार सकती। उस बुद्धि को मुझ से कहते हो कि भोली कर दो, क्या चाँदनी सूर्य की चोरी कर सकती है। (कदापि नहीं) ॥३॥ पूर्वार्द्ध में व्यशार्थ द्वारा कायापत्ति अलंकार है कि जब बहुत बड़ी माया विष्णु आदि की उनकी मति को नहीं भुला सकती, तब मेरी तुच्छ माया या चीज़ है ? सभा की प्रति में चाँदिनि कर कि चन्द कर चोरी पाठ है। उसका अर्थ किया गया है कि-"मला कभी चाँदनी भी चन्द्रमा को चुरा सकती है ?" चाँदिनि और चन्दकर दोनों एक ही वस्तु , चन्ममा का अर्थ घुमा पर किया गया है। गुटका और राजापुर की प्रति में उपर्युक्त का पाठ है, इससे यही कविकृत विशुद्ध पाठ है। भरत हृदय सिय-राम निवासू । तहँ कि तिमिर जहँ तरनि प्रकासू ॥ अस कहि सारद गइ विधि-लोका। विबुध विकल निसि मानहुँ कोका ॥४॥ भरतजी के हृदय में सीताराम का निवास है, जहाँ सूर्य का प्रकाश है क्या वहाँ अन्ध- कार रह सकता है ? (कदापि नहीं)। ऐसा कह कर शारदा ब्रह्मलोक को चली गई, देवता ऐसे मालूम होते हैं मानों रात में चकवा पक्षी व्याकुल हो) nel दो०-सुर स्वारथी मलीन मन, कीन्ह कुमन्त्र कुठाट । रचि प्रपञ्जु माया प्रबल, अय सम अरति उचाट ॥२९॥ मलिन मनवाले स्वार्थी देवताओं ने खोटी सलाह करके कुप्रबन्ध कर ही डाला। अपनी कपट का जाल रच कर ऐसा किया कि लोगों को भय, भ्रम, मन न लगना और उचाट हो ॥२५॥ चौ० कारि कुचाल सोचत लुरराजू । अरत हाथ सम काज अकाजू॥ गये जनक रघुनाथ समीपा । सनमाने सब रबिकुल-दीपा ॥१॥ कुचाल करके इन्द्र सोचते हैं कि सब काज अकाज तो भरतजी के हाथ में है। जनकजी रघुनाथजी के समीप गये, सूर्युकुल के दीपक रामचन्द्रजी ने सव का सनमान कर श्रासन दिये ॥१॥ समय समाज धरम अबिरोधा। बोले तब रघुबंस-पुरोधा ॥ जनक भरत सम्बाद सुनाई । भरत कहाउति कही सुहाई ॥२॥ तब रघुकुला के पुरोहित (वशिष्ठजी) समय, समाज और धम के अनुकूल बोले । जनक और भरत का सम्माद सुनाया, भरतजी की सुहावनी कहनूति कही ॥२॥ प्रबल माया ३