पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७१४

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । तेउ सुनि सरन सामुहे आये। सकृत प्रनाम किये अपनाये ॥ देखि दोष कबहुँ न उर आने । सुनि गुन साधु-समाज बखाने ॥२॥ वे भी यश सुन कर सामने शरण आये और एक बार प्रणाम किया, इन्हें आपने अपना लिया। शरणागों के दोष भाँख से देख कर कभी सदय में नहीं लाये और सुने सुनाये गुणे को श्रीमुख से साधु-मण्डली में स्नान किये ॥२॥ को साहिब सेवकाहि नेवोजी । आपु समान साज सच साजी ॥ निज करतूति न समुझिय सपने । सेवक सकुच सोच उर अपने ॥३॥ ऐसा दूसरा कौन स्वामी है जो सेवक पर इतनी मिहरबानी करता हो कि उसका सब सामान अपने वरावर पनाता हो। अपने उपकार की करनी को सपने में भी नहीं समझते, उलटे सोच से उदय में सकुचाते रहते हैं कि मैं ने इसका कोई उपकार नहीं किया ॥३॥ सो गोसाँइ नहिं दूसर कोपी । झुजा उठाइ कहउँ पन रोपी ॥ पसु नाचत सुक पाठ प्रबीना । गुन गति नट पाठक आधीना ॥४॥ वह स्वामी (नाप तिवा) दूसरा कोई भी नहीं है, इस बात को मैं भुजा उठा कर और प्रतिमा-पूर्वक कहता हूँ । पशु नाचते हैं और सुआ पढ़ने में प्रवीण होता है, उन दोनों के गुणों की गति नचानेवाले और पढ़ानेवाले के अधीन है ran पशु को नाचने में अभ्यरत करना नट का काम और सुग्गे को पाठ में प्रवीण करने में पाठक प्रशंसा योग्य है न कि पशु और शुक 'यथासंख्य अलंकार' है। दो-याँ सुधारि सनमानि जन, किये साधु सिरमौर । को कृपाल बिनु पालिहै, बिरदावलि बरजोर ॥een इस प्रकार आपने इस लेवक को सुधार कर और सम्मान करके साधुः शिरोमणि बना दिया । हे कृपालु ! आप के बिना ऐसी प्रवल नामवरी कौन पालन करेगा? (कोई नहीं)२88 जैसे नट-पाठक पश्च-शुक को सुधार कर गुणवान बनाते हैं, तैले आपने मेरे दुगुणों को दूर कर साधुओं का सिरमौर बना दिया । प्रथम चैपाई में उपमेय वाक्य है। दूसरे दोहे के पूर्वाद्ध में उपमान वाश्य है । विना वाचकपद के दोनों वाक्यों में विम्ब प्रतिविज भाव झलकमा 'दृष्टान्त अलंकार' है। चौ०-सोक सनेह कि बाल सुभायें। आयउँ लाइ रजायसु बार्थे । । तबहुँ कृपाल हेरि निज ओरा । सबहि झाँतिभल मानेउ भारा॥१॥ शोक से, स्नेह वश या कि बाल-स्वभाव से मैं आप की आशा को बाँयें लगा कर यहाँ भाया। हे कृपालु ! तय भी आपने अपनी ओर देख कर सभी तरह से मेरी भलाई मान ली ॥१॥