पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७१५

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4 ६५४ रामचरित-मानसे। देखेउँ पाय सुमङ्गल-मूला । जानेउँ स्वामि सहज अनुकूला, ॥ बड़े समाज बिलोकेउँ भागू । बड़ी चूक साहित्र. अनुरागू ॥२॥ सुन्दर सगल मूल चरणों को देखा, स्वामी को सहज प्रसाल जाना। इस बड़े समाज में अपने बड़े भाग्य को देखता हूँ कि घड़ी चूक पर भी स्वामी की इतनी घनिष्ट प्रीति ! (मेरा अहोभाग्य है) ॥२॥ छपा अनुग्रह अङ्ग अघाई । कोन्हि कृपानिधि सब अधिकाई । राखा क्षार दुलार गोसाँई । अपने सील सुभाय मलाई ॥३॥ हे कृपानिधान ! आपने सब तरह से बड़ी कृपा प्ती, इस अनुग्रह से मेरा प्रङ्ग परिपूर्ण हो गया। स्वामी ने अपने शील, स्वभाव और भलाई ले मेरा दुलार रक्खा ॥३॥ नाथ निपट मैं कोन्हि ढिठाई । स्वामि-समाज सकोच बिहाई । अभिनय बिनय जया रुचिबानी। छमिहि देउ अति आरत जानी । हे नाथ ! मैं ने अत्यन्त ढिठाई की कि स्वामी की सभा में लाज छोड़ कर उदास्ता और विनती की वात जैसी मुझे रुची यह कही है, हे देव ! अत्यन्त दुःखी जान कर क्षमा कीजिये ॥ दो०-सुहृद सुजान सुसाहिबहि, बहुत कहब बड़ि खोरि । आयसु देइय देव अब, सब्बइ सुधारिय मारि ॥३०॥. सुन्दर हृदय, चतुर और अच्छे स्वामी से बहुत कहना बड़ा अपराध है । हे देव ! अब श्राज्ञा दे कर मेरी सब तरह से सुधारिये ॥३०॥ यहाँ वाच्यार्थ और व्यनाथ बराबर है कि जैसे मेरे सम्पूर्ण दुर्गुणों को गुण मान कर स्वामीने मुझे कृतार्थ किया, वैसे यह भी सुधारिये कि नाशा पालन कर मैं कृतकृत्य हाऊँ। चौ०-प्रच-पद-पदुम पराग दोहाई। सत्य-सुकृत-सुख-सौंव सुहाई । सो करि कहउँ हिये अपने को। रूचि जागत सोवत सपने की ॥१॥ स्वामी के चरण-कमलों की धूलि जो सत्य पुण्य और सुख की सुन्दर सीमा है, उसका सौगन्द करके अपने हृदय की जागते, सोते और अपने की रुचि कहता हूँ ॥१॥ सहज सनेह स्वालि सेवकाई । स्वारथ छल फल चारि बिहाई ॥ अज्ञा सम न सुसाहिब सेवा । सो प्रसाद जन पावइ देवा ॥२॥ सहज स्नेह से स्वामी की सेवकाई स्वार्थ रूपी छल और चोरों फल की इच्छा त्याग कर करूँ ! श्राशा-पालन के समान अच्छे स्वामी की दूसरी सेवा नहीं है, हे देव ! वही प्रसाद यह खेषक पावे ॥२॥