पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७१६

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पानी ॥ द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ६५५ अस कहि प्रेम विवस भये भारी। पुलक सरीर बिलोचन बारी। प्रभु-पद-कमल गहे अकुलाई । समउ सनेह न सो कहि जाई ॥३॥ ऐसा कह कर अत्यन्त प्रेम के अधीन हो गये, शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में जल भर आया । अकुला कर स्वामी चरण-कमलों को पकड़ लिया, उस समय का स्नेह कहा मही जाता है ॥३॥ कृपासिन्धु सनमानि सुबानी। बैठाये समीप गहि भरत बिनय सुनि देखि शुभाऊ । लिथिल सनेह सभा रघुराज ॥ ४ ॥ कृपासागर रामचन्द्रजी ने सुन्दर वाणी से सन्मान करके हाथ पकड़ कर समीप में बैठा लिया । भरतजी की विनती सुन कर और उनका स्वभाव देख कर सभा के सहित रघुनाथजी स्नेह से शिथिल हो गये ॥४॥ हरिगीतिका-छन्द । रघुराउ सिथिल सनेह साधु-समाज मुनि मिथिला-धनी । मन महँ सराहत भरत भायप, भगति की महिमा धनी । भरतहि प्रसंसत बिबुध बरषत, सुमन मानस मलिन से। तुलसी बिकल सब लोग सुनि सकुचे लिसागम नलिन से ॥१२॥ रघुनाथजी, सज्जन-मण्डली, मुनि और मिथिलेश्वर स्नेह से शिथिल हैं । भरतजी का भाईचारा और उनके पति की धनी महिमा मन में सराहते हैं ! देवता भरतजी की प्रशंसा करके फूल बरसाते हैं; किन्तु उनका मन मलिनता से भरा है । तुलसीदासजी कहते हैं कि सब लोग सुन कर व्याकुलता से रात्रि के श्रागमन में कमल के समान सिकुड़ गये हैं ॥१२॥ जो०-देखि दुखारी दीन, दुहुँ समाज नर नारि सब। भघका महा सलील, मुथे. सारि मङ्गल चहत ॥३०१॥ दोनों समाज के सम्पूर्ण स्त्री-पुरुषों को दीन दुःखी देख कर महा मलिन इन्द्र मुर्दे को मार कर अपना कल्याण चाहता है ॥३०॥ भावी राम-वियोग के ख्याल से लोग दुःख से यों ही मृतक तुल्य हो रहे हैं, तिल पर स्वार्थी इन्द्र के कपट-प्रयोग मुर्दे को मारना है। चौ०-कपट-कुचालि-सीव सुरराजू । पर अकाज प्रिय आपन-काजू ॥ काक समान पाकरिपुरीती। छली भलीन कतहुँ न प्रतीती ॥१॥ देवराज कपट और कुचाल का हद है, उसको पराये का प्रकाज और अपना काज प्यारा है । इन्द्र की रीति कौए के समान छूती, मलिन और कहीं विश्वास न करने की है ॥१॥