पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७१७

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रामचरित मानस । ६५६ प्रथम कुमत करि कपट सकेला । सो उचाट सब के सिर मेला। सुर-माया सब लोग बिमोहे । राम-प्रेम अतिसय न विछोहे ॥२॥ पाणे मोटो सलाह करके कपट हमला किया. पर उचाटन RT के सिर पर बर मया था। उस देव-माया से लय लेग विमोहित हुप, परन्तु रामचन्द्रमो के अतिशय प्रेम से उनका विछोह नहीं हुमा अर्थात् रघुनाथजी को छोड़ कर कोई भी घर साटना नही चाहते ॥२॥ भय उचाट बस मन धिर नाहीं । छन बन रुचि छन सदन सुहाहीं । दुबिध मनोगति प्रजा दुखारी । सरित सिन्धु सङ्गम जनु बारी ॥३॥ परन्तु भय और उचाट यो वश मन किसी का स्थिर नाहीसग में धन कीमा होती और क्षण में घर घलना अच्छा लगता है। मन की पति दुविधा में पड़ने से प्रमा दुःखी है, ऐसा मालूम होता है मानों नदी और समुद्र के साम का पानी चल ही AR दुचित कतहुँ परितोष न लहही । एक एक सन मरम न कहहीं । लखि हिय हँसि कह कृपानिर्धानू । सरिस स्वान मघवान जुबानू ॥१॥ चित्त में दुविधा होने से फदी प्रसन्नता नहीं पाते हैं और एक दूसरे से (मन का यह) भेद नहीं कहते हैं। लोगों की दशा देग कर सानिधान रामचन्द्रोदय में हंस कर करते हैं कि पुस्ता, इन्द्र और युधा की प्रकृति राघर है Men इन्द्र-उपमेय और स्वान जवान-उपमान दोनों का एक धर्म वल प्रकृति कथन करना 'दीपक अलंकार है । प्रजावर्ग परस्पर मन का मे इसलिये नही कहते है कि कई याम जान ले कि इन्हें रामचन्द्रजी को छोड़ कर घर सुहा रार है। 'श्वयुयमघोनामतद्धिते प्रया ध्यायी के इस सूत्र में श्वन, युवन् , मघवन् तीनों शब्दों के रूप एक से बतलाये हैं। दो-भरत जनक सुनिजन सचिव, साधु सचेत बिहाइ । लागि देव-साया सबहि, जयाजोग जन पाइ ॥३०२॥ भरतजी, राजा जनक, मुनिजन, मन्त्री और चैतन्य महात्मायों को छोड़ कर यथायोग्य मनुष्यों को पा कर न्यूनाधिश्य रूप में समी को देव-माया लगी ॥३०२॥ एक ही देव-माया के प्रभाव से कुछ लोगों का पच जाना और कुछ का माहित होना अर्थात् एक ही वस्तु ले विरोधी कार्य का प्रकट होना 'प्रथम घ्यावात अलंकार' है। चो-कृपासिन्धु लखि लोग दुखारे । निज सनेह सुरपति छल पारे । समा राउ गुरु महिसर मन्त्री । रत भगति सब के मत्ति जन्त्री॥१॥ कपा के समुद्र यमचन्द्रजी ने देखा कि लोग हमारे स्नेह और इन्द्र के भारी छल से दुःखी है । समाखद, राजा जनक, गुरुजी; चामण और मन्त्री सब की धुद्धि को भरतजी की भक्ति ने यन्त्रित (जकड़) कर रखा है ॥१॥