पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७१९

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} ६५८ रामचरित मानस । अभागा. दूसरा कौन है ? दयालु सुजान रामचन्द्रजी ने सब की दशा देख और अन (भरतजी) के मन की बात जान कर कि ये स्पष्ट मेरी प्राक्षा पा कर ही सन्तुष्ट होंगे ३२॥ धरम-धुरीन धीर नय-नागर । सत्य सनेह सील सुख-सागर॥ देश कोल लखि समाउ समाजू । नीति प्रीति पालक रघुराजू ॥३॥ धर्मधुरन्धर, धीरवान् , नीति में चतुर, सत्य, स्नेह, शील और सुख के समुद्र मोति तथा प्रीति के पालनेवाले रघुनाथजी देश, काल, समय और समाज देख कर थोले १३॥ बोले बचन बानि सरबल से । हित परिनाम सुनत ससि-रस से। तात भरत तुम्ह घरस-धुरीना । लोक बेद-बिद प्रेम-प्रथीना ॥ वाणी के सर्वस्वसरीया वचन घोले, जो परिणाम में हितकारी और सुनने में चन्द्रमा के रख (अमृत) के समान है। हे प्यारे भरत ! आप धर्म-धुरन्धर, लोक वेद के शाता और प्रेम में प्रवीण ई ॥४॥ सभा की प्रति में 'लोक वेद विद परम-प्रमीना' पाठ है ! देश-करम बचन मानस बिमल, तुम्ह समान तुम्ह तात। गुरु-समाज लघुबन्धु-गुन, कुसमय किमि कहि जात ॥३०॥ हे तात ! कम, वचन और मन से निर्मल श्राप के समान आए ही हैं। गुरु-समाज में दुर्दिन के समय छोटे भाई का गुण कैसे कहा जा सकता है ? ॥३०॥ श्राप के समान आप ही हैं अर्थात् उपमेय ही को उपमान बनाना अनन्यय भलंकार है। चौ० जानहु तात तरनि-कुल रीती। सत्यसन्ध पितु कीरति प्रीती ॥ समउ समाज लाज गुरुजन की । उदासीन हित अनहित मन की ॥१॥ हे तात ! आप सूर्यकुल की रीति जानते हो और सत्यवावी पिता की कीर्ति, उन की प्रीति, समय, समाज, गुरुजनों की लाज, मध्यस्थ, मित्र तथा शत्रु के मन की ॥१५. तुम्हहिं विदित सबही कर करमू । आपन मोर परम-हित धरमू । भोहि सब भाँति भरोस तुम्हारा । तदपि कहउँ अवसर अनुसारा ॥२॥ अपना और मेरा परम हितकारी धम', आए को समी के कर्तव्य मालूम हैं । मुझे आप को सब तरह भरोसा है. तो भी समय के अनुसार कहता हूँ ॥२॥ तात तात बिनु - बात हमारी। केवल नतरु प्रजा पुरजन परिवारू । हमाहिँ सहित सब होत खुआरू. ॥३॥ हे भाई ! पिताजी के बिना हमारी बात को केवल कुलगुरु की कृपा ने सम्हाला है । नहाँ तो प्रजा, पुरवासी और परिवार के सहित इम सब दुर्दशा-प्रस्त हो आवे ॥३॥ गुरु-कुल-कृपा सँभारी॥