पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७२२

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जोरी॥ द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ६६१ राजापुर की प्रति में इस चौपाई का उत्तरार्द्ध यहाँ नहीं है, वह ३०० दोहे के पूर्व इस प्रकार है। "सुनि प्रभु वचन भरत सुन पावा । मुनि-पद-कमल मुहित सिर ना ॥ मुख प्रसन्न मन मिटा विषादू । भा जड गेहि गिरा प्रसादू ॥" किन्तु काशी की प्रति में, गुटका और सभा की प्रति में, यह इसी स्थान में है। कीन्ह सप्रेस प्रनाम बहोरी । बोले पानि-पडूरुह नाथ भयउ सुख साथ गये को । लहउँ लाहु जग जनम भये को ॥३॥ भरतजी ने फिर प्रेम के साथ प्रणाम किया और कर-कमलों को जोड़ कर बोले । हे नाथ ! मुझे आप के साथ चलने का सुख हुआ और संसार में जन्म लेने का लाभ पाया ॥३॥ अब कृपाल जस आयसु होई । करउँ सीस धरि सादर साई ॥ सो अक्लरूम देव मोहि देई । अवधि पार पावउँ जेहि सेई ॥४॥ हे कृपालु ! अव जैसी आशा होती है, वही श्रादर के साथ सिर पर धारण करके कगा। हे देव ! मुझे वह सहाय दोजिये जिसकी सेवा करके अवधि से पार पाऊँ ॥४॥ दो०-देव देव अभिषेक हित, गुरु अनुखासन .पाइ । आनउँ सब तीरथ-सलिल, तेहि कह काह रजाइ ॥३०॥ हे देव ! आप के राज्याभिषेक के लिये गुरुजी को बाशा पा कर सा तीर्थो का जल ले आया हूँ, उसके लिये क्या श्राशा है ? ॥ ३०७ ॥ चौ०--एक मनोरथ बड़ा मन माहीं । समय सकोच जात कहि नाहीं। कहहु तात प्रसु आयसु पाई। बोले बानि सनेह सुहाई ॥१॥ एक बड़ा मनोरथ मन में है, वह भय और सकोच से कहा नहीं जाता है। प्रभु राम- चन्द्रजी ने कहा- हे तात ! कहिये, आशा पा कर सुन्दर स्नेह भरी वाणी बोले ॥१॥ चित्रकूट सुनि-यल तीरथ बन । खग मृग सर सरि निझर गिरिंगना प्रच-पद अङ्कित अवनि बिसेखी । आयसु होइ त आवउँ देखी ॥२॥ चित्रकूट पर्वत, मुनियों के श्राश्रम, तीथ, वन, पक्षी, मृग, तालाब, नदी, झरना और पर्वत-समूह, विशेष कर स्वामी के चरण-चिहित धरती को प्राक्षा हो देख माऊँ॥२॥ अवसि अनि आयसु घरहू । तात बिगत-आय कानन चरहू ॥ मुनि प्रसाद बन मङ्गल-दाता । पावन परम सुहावन भाता ॥३॥ रामचन्द्रजी ने कहा-हे तात ! अत्रि मुनि की आशा शिरोधार्य र अवश्य पन में निर्भय विचरिये। मुनि की कृपा से हे भाई ! यह धन अत्यन्त सहायना, पवित्र और मङ्गल का देनेवाला है ॥३॥