पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७२३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

-- रामचरितमानस रिषि-नायक जहँ आयसु देहौं । राखेहु तीरथ-जल थल तेहीं। सुनि प्रभु बचन भरत सुख पावा। मुनि-पद-कमल मुदित सिर नाथा ॥en ऋषिराज जहाँ आशा दें, इस तीर्थ जल को उसी स्थान में रमना । प्रभु राम. चन्द्रजी के वचन सुन कर भरतजी सुखी हुए और मुनि के चरण-कमलों में प्रसन्नता से सिर नवाया ॥४॥ दो--मरत-राम-सम्बाद सुनि, सकल सुबङ्गल-मूल । सुर स्वारथी सराहि कुल, बरषत सुरतरु फूल ॥३०॥ सम्पूर्ण सुन्दर महलों का मूल भरतजी बार रामचन्द्रजी का सम्बाद सुन कर स्वार्थी देवता सूर्यकुल की प्रशंसा करके कल्पवृक्ष का फूल परसते हैं ॥ ३० ॥ चौ०-धन्य भरत जय राम गोसाँई। कहत देव हरषत बरिआँई ॥ मुनि मिथिलेस सभा सब काहू । भरत बचन सुनि अयउ उछाहू ॥१॥ भरतजी धन्य है; स्वामी रामचन्द्रजी को जय हो, देवता ऐसा कहते हुए परवस प्रसन्न होते हैं । भरतजी के वचनों को सुन कर वशिष्ठ मुनि, मिथिलेश्वर और सव सभासदों को उत्साह श्रा॥१॥ भरत राम गुन-नाम सनेहू । पुलकि प्रसंसत राउ-विदेहू । सेवक स्वामि सुभाउ सहावन । नेम प्रेम अति पावन पावन ॥२॥ भरतजी पार रामचन्द्रजी के गुण-समूह तथा स्नेह की पुलकित शरीर से राजा जनक प्रशंसा करते हैं । सेवक और स्वामी का सुहावना स्वभाव एवम् नेम प्रेम अत्यन्त पवित्र से भी पवित्र है ॥२॥ सति अनुसार सराहन लागे । सचिन सभासद सब अनुरागे । सुनि सुनि राम-भरत-सम्बादू । दुहुँ समाज हिय हरष विषादू ॥३॥ मन्त्री, सभासद सब प्रेम से अपनी बुद्धि के अनुसार सराहने लगे। रामचन्द्रजी और भरतजी का सम्बाद सुन सुन कर दोनों समाजों के हृदयों में हर्ष और विषाद हो रहा है ॥३॥ हर्ष भरतजी की स्वामि-भक्ति पर और रामचन्द्रजी के न लौट ने का विषाद, दोनों भावों का साथ ही हृदय में उत्पन्न होना प्रथम समुच्चय अलंकार' है। राम-मातु दुख सुख सम जानी । कहि गुन राम प्रबोधी रानी ।। एक कहहिं रघुबीर बड़ाई। एक सराहत भरत भलाई ॥१॥ रामचन्द्रजी की माता दुःख और सुख को समान समझ कर रामचन्द्रजी के गुणों को कह कर रानियों को समझाया । कोई रघुनाथजी की बड़ाई करते हैं और कोई भरतजी की भलाई को सराहते हैं men