पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७२४

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्डे । ६६३ दो-अत्रि कहेउ तब भरत सन, सैल समीप सुकूप । राखिय तीरथ ताय तह, पावन अमिय अनूप ॥३०॥ तय अत्रिमुनि ने भरतजी से कहा कि पर्वत के समीप में सुन्दर कुमाँ है। तीर्थों का पवित्र जल अमृत रूप अनुपम वहाँ रखिये ॥३०॥ चौ०-भरत अनि अनुसासन पाई। जल-भाजन सब दिये चलाई ॥ सानुज आषु अत्रिमुनि साधू । सहित गये जहँ कूप अगाधू ॥१॥ अनिजी की आज्ञा पा कर भरतजी जल के सब पात्रों को सेवकों से भेज दिये। श्राप छोटे भाई शत्रुहन, अत्रिमुनि और साधुओं के सहित जहाँ गहरा कुआँ है वहाँ गये ॥१॥ पावन-पाथ पुन्यथल राखा । प्रमुदित प्रेम अनि अस भाखा ॥ तात अनादि सिद्ध थल एहू । लोपेउ काल विदित नहिँ केहू । २॥ पवित्र जल को पुण्य स्थल में रखने के लिये प्रेम के साथ प्रसन्नता से अनिजी ने ऐसा कहा । हे तात ! यह अनादि काल ले सिद्ध-स्थान है, काल पा कर लुप्त हो गया किसी को मालूम नहीं है.॥२॥ तष सेवकन्ह सरल थल देखा । कीन्ह सुजल हित कूप बिसेखा ।। विधि-बस अयउ बिस्व उपकारू । सुगम अगम अति धरम बिचारू ॥३॥ तव सेवकों ने श्रेष्ठ स्थान देखा और सुन्दर जल एथापन के लिये बड़ा बढ़िया कुशाँ पनाया (उसमें विधिवत जल स्थापन किया गया)। दैवयोग्य ले संसार का उपकार हुमा, अत्यन्त दुर्गम धर्म का विचार सुगम हो गया (एक ही स्थान में असंख्यों तीर्थों का फल सहज में प्राप्त हुना है) ॥३॥ भरतकूप अब कहिहहिँ लोगा। अति पावन तीरथ-जल जागा ॥ प्रेम सनेम निमज्जत प्रानी । हाइहहिं बिमल करम मन बानी ॥१॥ अब लोग इलको भरतकूप कहेंगे, तीर्थों के जल के सम्बन्ध ले यह अत्यन्त पवित्र हो गया। प्रेम और नियम के साथ स्नान करने से प्राणी कम', मन और वाणी से निर्मल हो जायगे men दो०-कहत कूफ महिमा सकल, गये जहाँ रघुराउ। अत्रि सुनायउ रघुबरहि, तीरथ पुन्य प्रभाउ ॥३१॥ कूप की महिमा कहते हुए सब जहाँ रघुनाथजी थे वहाँ गये अत्रिमुनि ने तीर्थ के पुण्य का प्रभाव रामचन्द्रजी को सुनाया ॥ ३०॥ चौ०-कहत धरम इतिहास सप्रीती। भयउ भार निसि सेा सुख बीती॥ नित्य निबाहि भरत दोउआई। रामं अनि गुरु आयसु पाई ॥१॥ भीति के साथ धार्मिक इतिहास : कइते सपेरा पुत्रा, वह राभि सुरु से पीती । भरस.