पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७२६

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द्वितोय सोपान, अयोध्याकाण्ड । कतहुँ निमज्जन कतहुँ मनाया । कतहुँ बिलोकन मन अभिरामा । कतहुँ बैठि सुनि आयषु पाई। सुमिरत सीय सहित रघुराई ॥३॥ कहीं स्नान और कहीं प्रणाम करते हैं, कहीं दर्शन करके मन में प्रसन्न होते हैं । कहीं मुनि को श्राज्ञा पावैठ कर सीताजी के सहित रधुनाथजी का स्मरण करते हैं ॥ ३ ॥ देखि सुमाउ सनेह सुसेना । देहि असीस मुदित बनदेवा ॥ फिरहि गये दिन पहर अढ़ाई। प्रम-पद-कमल बिलोकाहि आई ॥४॥ भरतजी के स्वभाव, स्नेह और सुन्दर सेवा-धर्म को देख कर वन के देवता प्रसनो माशीर्वाद देते हैं। दाई पहर दिन बीत जाने पर लौटते हैं और प्राकर प्रभु रामचन्द्रजी के चरण कमलों के दर्शन करते हैं॥४॥ दो०-देखे थल तीरथ सकल, भरत पाँच दिन माँक। कहत सुलत हरि-हर-सुजस, गयउ दिवस भइ साँझ ॥३९२० भरतजी ने पाँच दिन में सम्पूर्ण तीर्थस्थानों को देखा, हरि और हर का सुयश कहते सुमते (पाँचवाँ ) दिन बीत गया, साँझ हुई ॥ ३१२ ॥ चौ०-और न्हाइ सब जुरी समाजू । भरत ..भूमिसुर तिरहुतिराजू ॥ मल दिन आजु जानिमन माहीं । राम कृशाल कहत सकुचाहीं ॥१॥ समेरे स्नान करके सब समाज भरतजी, राजा जनक और ब्राह्मण बुन्द इकटे हुए। कृपालु रामचन्द्रजी मन मै सच्छा दिन जान कर कहते हुए सकुचाते हैं ॥१॥ गुरु नप भरत लमा अवलोकी । सकुचि राम फिरि अवनि बिलोकी ॥ सील सराहि समा सब सोची। कहुँ न राम सम स्वामि सकाची ॥२॥ गुरुवशिष्ठजी, राजा जनक, भरतजी और सभा की ओर देख रामचन्द्रजी सकुच कर पृथ्वी की तरफ निहारने लगे। शोल की प्रशंसा करके सबसमा सोचती है कि राम- चन्द्रजी के समान सोची स्वामी कहीं नहीं है ॥२॥ भरत सुजान रोम्ब रुख देखी । उठि समेस धरि धीर बिसेखी। करि दंडवत कहत कर जारी । राखी नाथ सकल रुचि भारी ॥३॥ सुजान भरतजी रामचन्द्रजी का रुख देख बड़ा धीरज धर कर प्रेम के साथ उठे। दण्डवत करके हाथ जोड़ कर कहते हैं कि हे नाथ! आपने मेरी सम्पूर्ण रुचि (वाहिश) रखी ॥३॥ मोहि लगि सहेज सबहि सन्तापू । बहुत भाँति दुख पावा आपू ॥ अब गोसाँइ मोहि देहु रजाई । सेवउँ अवध अवधि भरि जाई ॥४ मुझे लगा कर आपने सभी संताप सहे और बहुत तरह के दुःख पाये । अब हे स्वा- मिन् । मुझे आश दीजिये कि मैं अयोध्या में जा कर अवधि पर्यस्त उसका सेवन (पालन ) ४