पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७२७

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} ६६६ हामचरितमानस हो-जेहि उपाय पुनि पाय जन, देखइ दीनदयाल । तो लिख देइय अवधि लगि, कोसलपाल कृपाल ॥३१३॥ हे दीनदयाल ! जिस उपाय से यह लेषक फिर श्राप के चरणों को देखें, हे कपालु कौशलपाल ! अवधि भर के लिये वही लिखावन दौजिये ॥३१३॥ चौध-पुरजन परिजन प्रजा गोसाँई। सब सुषि सरस सनेह सगाई । राउर अदि अल भव-दुख-दाहू । प्रभु बिनु बादि परम-पद'लाह॥१॥ स्वामिन् ! पुरवासी, कुटुम्बी और प्रजाजनों के सम पवित्र रसीले स्नेह के नाते हैं। श्राप का कहा कर संसार के दुःख की जलन सहना अच्छा है और आप के बिना परम-पद (मोक्ष) का मिलना व्यर्थ है ॥१॥ आप के सम्बन्ध से संसार का दुःख-दाह सहना अच्छा है। अङ्गीकार न करने योग्य का श्रद्वीकार करना 'अनुशा अलंकार' है। कहने का तात्पर्य यह कि आप का आशा से अयोध्या में चौदह वर्ष रहना कुछ कठिन नहीं, वहाँ सब शुद्ध प्रेम करनेवाले हैं। कदाचित भीषण संसारी दुःख भोगना पड़े तो भी मुझे प्रसन्नता है । परन्तु श्राप से लम्बन्ध न रहने पर ऊंची ले ऊँची पदवी प्राप्त होना मेरे लिये नरक रूप है। वालि सुजान जानि सबही की । रुचि लालसा रहनि जन जी की। प्रगतपाल पालहिं सब काहू । देउ दुहूँ दिसि ओर नियाहू १२५ है सुजान एकामिन् ! सभी की रुचि और सेवक के मन की लालसा एवम् सिति समझ कर, हे देव शरणागती के पालक ! लय की रक्षा कीजिये, घर की ओर तथा धन की और दोनों का निवाहना भाप ही के हाथ में हैं ॥२॥ दिलि और और शब्दों में पुनरुति का भासास है, किन्तु एक घर और दूसरा बन के हेतु होने से 'पुनरुकिवदामाल अलंकार' है। अल माहि सब विधि भूरि भरोसा। किये बिचार न सोच खरी से।। आरति भार नाय कर छोहू । दुहुँ सिलि कीन्ह ढोठि हठि माहू३॥ ऐसा मुझे सब तरह बहुत बड़ा भरोसा है, विचार करने सेतृण के समान सोच नहीं है (अघ स्वामी रक्षक हैं)। मेरी दीनता और प्रभु का छह दोनों ने मिल कर हठ से मुझे डीठ, कर दिया है ॥३॥ यह बड़ दोष दूरि करि स्वामी । तजि सकोच सिखइय अनुगामी ॥ भरत भिनय सुनि सबहि प्रसंसी । छोर नीर बिबरन गति हंसी ॥४॥ हे स्वामिन् । यह बड़ा दोष दूर करके सकोच छोड़ सेवक को सिखाइये । भरतजी की बिनती को सुन कर सभी ने प्रशंसा की कि भरतजी को बुद्धि को गति दूध और पानी (गुण-दोष) को अलग करने में इंसिनी के समान है ॥४॥