पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७२८

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द्वितीय खोपान, अयोध्याकाण्ड । दो-दीनबन्धु सुनि बन्धु के, अपन दोन छल होन। देस काल अबसर सरित, बोले राम प्रधीन ॥३१४॥ दीनबन्धु रामचन्द्रजी माई के दौन छल-हीन वचन सुन कर देश, काल और समय के समान प्रवीण रामचन्द्रजी बोले ॥३१॥ चौ०–तात तुम्हारिमारि परिजन को । चिन्तागुरुहि पहि घर धन को । माथे पर गुरु मुनि मिथिलेखू । हलहिँ तुम्हहि सपनेहुँ न कलेखू ॥१॥ हे भाई! तुम्हारी, हमारी, इटुम्मियों की, घर और वन की चिन्ता गुरुजी को तथा राजा को है। जब माथे पर (सरपरस्त) गुरु वशिष्ठ मुनि मार मिथिलेश्वर हैं, तब हमें तुम्हें सपने में भी क्लेश नहीं है ॥१॥ मोर तुम्हार परम पुरुषारय । स्वारथ सुजस धरम परमारथ ॥ पितु-आयसु पालिय दुहुँ भाई । लोक बेद मल भूप भलाई ॥२॥ मेरा और आप का प्रत्युत्तम पुरुषार्थ, स्वार्थ, सुयश, धर्म और परमार्थ यही है कि दोनों भाई पिता की लाशो पालन करें, यह सोक तथा वेद-मत ले उत्तम है और राजा की प्रतिष्ठा है अर्थात् परलोक में उनकी आत्मा प्रसस होगी ॥२॥ गुरु पितु मातु स्वामि सिख पाले । चलेहु कुमग पग परइ न खाले ॥ अस बिचारि सब सोच बिहाई । पालहु अवध अवधि भरिजाई॥३॥ गुरु, पिता, माता और स्वामी का उपदेश मान कर कुडगर में चलने पर भी पाँव वाले (गड्डे मे) नहीं पड़ता। ऐसो विचार कर सब सोच त्याग दीजिये और अवधि पर्यन्त जा कर अयोध्या की रक्षा कीजिये ॥३॥ देस कोस पुरजन परिवार । गुरु-पद-रजहि लाग तुम्ह मुनि-मातु-सचिव लिख्ख मानी। पालेहु पुहुनि मजा रजधानी ॥ देश, भण्डार, पुरवासी और कुटुम्पियों का कुमोम गुरुजी के चरणों को धूलि में लगा है। आप मुनि, माता और मस्त्रियों की शिक्षा मान कर पृथ्वी, प्रजा तथा राजधानी का पालन दो-मुखिया मुख सो चाहिये, खान पान कह एक । पालइ पोषइ समल अंग, तुलसी सहित बिबेक ॥३१॥ मुखिया मुख के समान होना चाहिए कि खाना पीना अकेला ही करके-तुलसीदासजी कहते हैं, सम्पूर्ण अनों का पालन पोषण विचार के साथ करे ॥ ३१५ ॥ इसका स्पष्टीकरण पूर्व में ३०६ दादा के नीचे किया गया है।