पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७३

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रामचरित-मानस। २२ तेहि बल में रघुपति गुन-गाथा । कहिहउँ नाइ राम-पद माथा । मुनिन्ह प्रथम हरि-कीरति गाई । तेहि मग चलत्त सुगम माहि भाई ॥५॥ उसी घल से मैं रामचन्द्रजी के चरणों में मस्तक नवा कर रघुनाथजी के गुणों की कथा कहूँगा। पहले मुनियों ने भगवान् की कीर्ति गाई है, उस रास्ते में चलना मुझे सहल और अच्छा लग रहा है ॥५ दो०-अति अपार जे सरित बर, जौँ नृप सेतु कराहि । चढ़ि पिपीलिकउ परम-लघु, बिनु सम पारहि जाहि ॥ १३ ॥ जो बहुत बड़ी अपार नदियाँ हैं, उन पर यदि राजा पुल बनवा देते हैं, तो अत्यन्त छोटी चींटी भी उस पर चढ़ कर बिना परिश्रम पार चली जाती है ॥१३॥. चौ०-एहि प्रकार बल मनहिँ देखाई । करिहउँ रघुपति कथा सुहाई. ।। व्यास-आदिकवि-पुङ्गव नाना । जिन्ह सादर हरि सुजस वखाना ॥१॥ इस प्रकार का बल मन को दिखा कर मैं रघुनाथजी को सुहावनी कथा निर्माण करूंगा। महर्षि वेदव्यास आदि अनेक श्रेष्ठ कवि हुए हैं, जिन्होंने श्रादर-पूर्वक भगवान् का सुयश वर्णन किया है ॥१॥ 'श्रादि कवि' शब्द श्लेषार्थी है जिससे वाल्मीकि का अर्थ प्रकट हो रहा है। पर वाल्मी. कि की धन्दना आगे करेंगे। कवि का मुख्य तात्पर्य वेदव्यास आदि अनेक श्रेष्ठ कवियों से है, न कि वाल्मीकि से जैसा कि श्लेष से व्यजित होता है। चरन-कमल बन्दउँ तिन्ह केरे। पुरवहु सकल मनोरथ मेरे ॥ कलि के कबिन्ह करउँ परनामा । जिन्ह बरने रघुपति-गुन-ग्रामा ॥२॥ मैं उनके चरण कमलों को प्रणाम करता हूँ, मेरे सब मनोरथ पूरे होंगे। कलि के कवि गण जिन्होंने रघुनाथजी के गुण-समूह वर्णन किया है, उनको प्रणाम करता हूँ ॥२॥ जे प्राकृति कवि परम सयाने। भाषा जिन्ह हरि चरित बखाने ॥ भये जे अहहिं जे होइहहिं आगे। प्रनवउँ सबहि कपट छल त्यागे ॥३॥ जो इतर हिन्दी के बड़े चतुर कवि हुए, जिन्हों ने भाषा में हरिचरित वर्णन किया । ऐसे कवि जो पहले हो चुके, वर्तमान में हैं और आगे होंगे, छल कपट छोड़ कर मैं उन सबको प्रणाम करता हूँ ॥३॥ "कपट छल दोनों शब्दों में पुनरुक्ति का श्राभास है, किन्तु पुनरुक्ति नहीं है। एक भेद- भाव का वाधक है और दूसरा धूर्तता (वह व्यवहार जो दूसरों को ठगने के लिए किया जाता है) का सूचक 'पुनरुकिवदामास अलंकार है। यहाँ लोग शक्षा करते हैं कि अब तक जो वन्दना की क्या धई छल-कपट सहित की १ जो ऐसा कहते हैं। उत्तर-आगे होनेवाले