पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७३०

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । राम कृपा अवशेष सुधारी। विबुध-धारि भइ .गुनद गोहारी ॥ भेंटत भुज भरि भाइ भरत खो। राम-प्रेम-रस कहि न परत सो ॥२॥ देवताओं का किया हुभा समूह विगाइ रामचन्द्रजी को छपा से सुधर कर गुणदायक गोहारि (लहायता) हो गई । भाई भरतजी से भुजा मर भेटते हैं, रामचन्द्रजी को प्रेम से जो अानना था वह कहते नहीं बनता है ॥२॥ तन मन बचन उमग अनुरागा। धीर-धुरन्धर धीरज त्यागा। बारिज लोचन मोजत बारी । देखि दसा सुर-सभा दुखारी ॥३॥ तन, मन और बचन ले प्रेम में उमस कर धीर धुरन्धर रामचन्द्रजी ने धीरज छोड़ दिया। कमलनयनों से आँसू बहने लगा, यह दशा देख कर देवमण्डली दुःखी हुई ॥३॥ मुनिगन गुरु धुर धीर जनक से । ज्ञान-अनल मन को कनक से । चिरजि निरलेप उपाये। पदुमपत्र जिमि जग जल जाये ॥१॥ मुनि भण्डली, गुरुवशिष्ठजी और धैर्यधारियों में धुरन्धर राजा जनक के समान योगि- राज जो ज्ञान रूपी अग्नि में मन रूपी सुवर्ण को तपाये से हैं, जो ब्रह्मा के सार सम्बन्धी प्रपत्र से ऐसे अछूत है, जैसे जल से उत्पश कगलपन उससे अलग रहता है॥४॥ दो-तेउ बिलोकि रघुबर भरता, प्रीति अनूप अपार । भये समन तन मन बचन, सहित बिराग बिचार ॥३९॥ वे भी रघुनाथजी और भरतजी की अनुपम अपार प्रीति को देख कर तन, मन, वचन, वैराग्य और शान के सहित मन हो गये ॥ ३१७ ॥ चौ०-जहाँ जनक गुरु गति-मति भारी। प्राकृत प्रीति कहत बड़ि खारी। बरनत रघुबर भरत बियोगू । सुनि कठोर कबि जानिहि लोगू ॥१॥ जहाँ राजा जनक, और गुरुजी की बुद्धि की गति भोली हुई है, वहाँ संसारी प्रीति कहने बड़ा दोष है। रघुनाथजी और भरतजी का वियोग वर्णन करने में लोग उसे सुन कर कवि को कठोर समझगे ॥१॥ सो सकोच-रस अकथ सुबानी। समउ सनेह सुमिरि सकुचानी ।। मैं टि भरत रघुबर समुझाये। पुनि रिपुदवन हरषि हिय लाये ॥२॥ वह सोच-रस सुन्दर वाणी से भी अकथनीय है, पयोकि उस समय का स्नेह स्मरण कर (वाणी) लज्जित हो गई है। भरतजी से मिलकर रघुनाथजी ने उन्हें समझाया, फिर प्रसन्नता से शत्रु इनजी को हदय से लगा लिया ॥२॥