पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७३१

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. ६७० रामचरित मानस । सेवक सचिन भरत रूख पाई। निज निज काज लगे सब जाई॥ सुलि दारुन दुख दुहूँ समाजा । लगे चलन के साजन साजा ॥३॥ सेवक और मन्त्री भरतजी का रुख पा सब जाकर अपने अपने काम में लग गये। दोनों समाजों को सुनकर भीषण दुःख दुआ, सय चलने की तैयारी करने लगे ॥३॥ मनु-पद-पदुम बन्दि दोउ माई । चले सीस धरिः राम-रजाई। मुनि तापस बनदेव निहारी। सत्र सनमानि बहोरि बहोरी | प्रभु रामचन्द्रजी के चरण-कमलों को प्रणाम करके भरत-शत्रुहन दोनों भाई रामचन्द्रजी की श्राशा शिरोधार्य कर चले । मुनि, तपस्वी और धनदेवताओं से बिनती करके सबका बार बार सम्मान किया ॥॥ दो लखनहि भेटि प्रनाम करि, सिर धरि सिय-पद धूरि । चले सप्रेम असील सुनि, सकल सुमङ्गल-सूरि ॥३१॥ लक्ष्मणजी ले मिलकर सीताजी को प्रणाम कर उनके चरणों की धूलि सिर पर धारण करके और सम्पूर्ण सुन्दर मालोको मूल भाशीर्याद प्रेम से सुनकर (भरतजी और शत्र, हनजी) चले ॥ ३१॥ चौ०-सानुज राम न्टपहि सिर नाई । कोन्हि बहुत बिधि बिनय बड़ाई। देव दया-बस बड़ा दुख पायेउ । सहित समाज काननहिं आयेउ ॥१॥ छोटे भाई लक्षमण के सहित रामचन्द्र जी ने राजा जनक को सिर नवाया और बहुत तरह से विनती करके उनकी बड़ाई की। हे देव ! दयावश आपने पड़ा दुःख पाया कि समाज के सहित वन में श्राये॥१॥ पुर पग धारिय देइ असीसा । कीन्ह धीर धरि गवन महोसा ॥ मुलि सहिदेव साधु सनमाने । बिदा किये हरि हर सम जाने ॥२॥ आशीर्याद दे कर नगर को पधारिये, राजा धीरज धर फर गमन किये। मुनि, ब्राह्मण और सज्जनों का सम्मान विष्णु और शिवजी के समान समझ कर उन्हें विदा किया ॥२॥ सासु समीप गये दोउ माई। फिरे बन्दि पग आसिष पाई ॥ कौसिक बामदेव जाबाली । परिजन पुरजन सचिव सुचाली ॥३॥ फिर दोनों भाई (राम-लक्ष्मण) सासु के समीप गये और उनके चरयों की बन्दना कर आशीर्वाद पा कर लौटे । विस्वामित्रजी, बामदेव और याज्ञवल्क्य मुनि, कुटुम्बोजन, पुरवासी, मन्त्री और भी उत्तम पाचरणवाले लोग ॥३॥