पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७३२

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ६७१ जथाजोग करि बिनय प्रनामा । बिदा किये सवं सानुज रामा । नारि-पुरुष लघु मध्य बड़ेरे । सब सनमानि कृपानिधि फेरे ॥१॥ रामचन्द्रजी और लक्ष्मणजी ने सब से यथायोग्य बिनती और प्रणाम करके उन्हें विदा किया । स्त्री-पुरुष, लघु, मध्यम और बड़े सब का सम्मान कर कृपानिधान रघुनाथजी ने लौटाया ॥४॥ दो-भरस-मातु-पद बन्दि प्रक्षु, सुचि सनेह मिलि मैंटि । बिदा कीन्ह सजि पालकी, सकुच सोच सब मैंटि ॥३१॥ प्रभु रामचन्द्रजी ने भरतजी की माता केकयी के चरणों में प्रणाम कर पवित्र स्नेह से मिल भेट सब संकुध सेव मिटा कर पालकी खजवा कर शिक्षा किया ॥३१॥ चौक-परिजन सातु पितहि मिलि सीता। फिरी मान-प्रिय प्रेम पुनीता ॥ करि प्रनाल में टी सब सासू । प्रीति कहत कबिहिय नहुलासू ॥१॥ प्याणप्यार रामचन्द्रजी के प्रेम में पवित्र सीताजी कुटुम्म के लोग और पिता-माता से मिल कर लौट आई। प्रणाम करके सय लासुत्रों से मिली, उस समय की प्रीति कहते हुए कवि के हृदय में खुशी नहीं है ॥१॥ सुनि सिख अभिमत आखिष पाई । रही सीय दुहुँ प्रीति समाई ॥ रघुपति पटु पालकी मंगाई । करि प्रबोध सब मातु पढ़ाई ॥२॥ सामुओं के उपदेश सुन कर और मन हाञ्छित आशीर्वाद पा सीताजी दोनों शोर (सासु और स्वामी) की प्रीति में समा गई । रघुनाथजी ने सुन्दर पालकी मँगवायी और सब माताशों को समझा बुझाकर उस पर बढ़ाया ॥२॥ बार बार हिलिमिलि सब भाई । सम सनेह जननी पहुँचाई ।। साजि बाजि गज बाहन नाना । भूप भरत दल कीन्ह पयाना ॥३॥ बार बार दोनों भाई समान स्नेह से हिल मिल कर माताओं को पहुंचाया। घोड़ा, हाथी और नाना प्रकार को लवारियों को सज सज कर राजा जनक और भरतजी के दल ने पयान किया ॥३॥ हृदय राम सिय लखन समेतो । चले जाहिँ सब लोग अचेता। बसह बाजि गज पसु हिय हारे । चले जाहिँ परबस मन मारे ॥४॥ एदय में लक्ष्मणजी के सहित रामचन्द्रजी और सीताजी का रूप वर्तमान हैं, सब लोग अचेतन दशा में चले जाते हैं। बैल, घोड़े, हाथी आदि पशु हृदय में हारे मन मा पराधीन चले जाते हैं ।