पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७३४

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द्वितीय शेपान, अयोध्याकाण्ड । भक्ति और सीताजी, शान और रामचन्द्रजी, वैराग्य और लक्ष्मणजी परस्पर उपमेष उप- मान हैं। भक्ति, और शान वैराग्य शरीरधारी नहीं होते, कवि की कल्पनामा 'अनुफविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है। चौ-मुनि सहिसुर गुरु अरव भुआलू । राम-चिरह सम साज बिहालू ॥ प्रागुन-ग्राम गुनत्त मन माहीं। सब चुपचाप चले मग जाहीं ॥१॥ मुनि, ब्राह्मण-वृन्द गुरु वशिष्ठजी, भरतजी और राजा जनक, रामचन्द्रजी के वियोग मैं सब समाज बेचैन है। प्रभु के गुण-समूह मन में विचारते हुए सब चुपचाप रास्ते में चले जाते हैं ॥१॥ जमुना उतरि पार सब भयऊ । सो बासर बिनु भोजन गयऊ । उत्तरि देवसरि दूसर बासू । राम-सखा सब कीन्ह सुपासू ॥३॥ सब यमुग उत्तर कर पार हुए, वह दिन बिना भोजन के बीत गया। दूसरे दिन गना पार होकर निवास श्रा, रामसखा निषाद ने सब सुपोता किया १२३ सई उतरि गोमती नहाये। चौथे दिवस अवधपुर आये। जनक रहे. पुर बालर बारी । राजकाज सब साज संभारी ३॥ तीसरे दिन सई उतर पर गोमती में स्नान किये और चौथे दिन अयोध्यापुरी में था गये। जनफजी चार दिन अयोध्या में रहे, राजकाज और सब सामान का सम्हाल करके ॥n. साँपि सचिव गुरु भरतहि राजू । तिरहुति शंले साजि सच साजू ॥ नगर नारि नर गुरु सिख भानी । बसे सुखेन राम-रजवानी ॥४॥ मन्त्री, गुरु और भरतजी को राज्य सौंप कर सब तैयारी करके मिथिला को चले। नगर के श्री-पुरुष गुरुजी की शिक्षा मान कर सुक्षपूर्वक रामचन्द्रजी की राजधानी अयोध्या में रहने लगे RR दो-राम दरल लगि लोग सब, करत नेम उपवास। तजि तजि भूषन भोग सुख, जियत अवधि की आस ॥३२॥ रामचन्द्रजी के दर्शन के निमित्त सब लोग नेम और प्रत करते हैं। आभूषण और भोग-. विलास के सुखों को त्याग कर अवधि की आशा से जीते हैं ।।३२२. सब को इस बात का भरोसा है कि चौदह वर्ष बीत जाने पर रामचन्द्रजी के दर्शन होंगे। यही आशा जिलाती है, नहाँ तो इस मीषण वियोग से जीना कठिन था। , धौ-सचिव सुसेवक भरत प्रबोधे। निज निज काज पाइ सिख ओधे । पुनि सिख दोन्हि बोलि लधुभाई। सौंपी सकल मातु. सेवकाई ॥१॥ मन्त्री और चतुर सेवकों को भरतजी ने (कार्यभार) समझा दिया, वे श्राला पाकर अपने अपने काम में ला गये। फिर छोटे भाई शत्रुहनजी को बुला कर उपदेश दिया, उन्हें सब माताओं की सेवकाई सौंपी ॥३॥ 1