पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७३७

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रामचरित मानस । कमला बिलते हैं उसी तरह भरतजी का हदय निर्मल आकाश रूप है और शम, दम, संयम, नियम और उपवास शाहि तारागण रूपी सहा उदय रहते हैं ॥२॥ ध्रुव बिस्वास अवधि राका सी । स्वामि-सुरति सुरबीधि बिकासी। राम-प्रेम-विधु अञ्चल अदोखा । सहित समाज साह नित चोखा ॥३॥ विश्वास ध्रुव-तारा रूप है, अवधि पूर्णिमा की रात्रि के समान है, स्वामी को याद देवडगर रूपी उजाला करनेवाला है। रामचन्द्रजी में प्रेम निश्चल कलंक रहित चन्द्रमा रूप है जो अपने समाज के सहित नित्य इत्तमता पूर्वक शोभायमान हो भरत रहनि समुझान करतूती । भगति निरति गुन बिमल विभूती । धरनत सकल सुकवि सकुचाहीं । सेस-गनेस-गिरा-गम नाहीं ॥१॥ भरतजी की स्थिति, उनकी समझ, करनी भक्ति, वैराग्य, गुण और निर्मल महिमा वर्णन करने में सम्पूर्ण सुकवि लज्जित हो जाते हैं, शेष, गणेश और सरस्वती की पहुँच नहीं है ॥ ४॥ दोष-नित पूजत प्रभु पाँवरी, प्रीति ने हृदय समाति । माँगि बाँगि आयसु करत, राजकाज बहु भाँति ॥३२५॥ प्रभु रामचन्द्रजी के पादुकाओं की नित्य पूजा करते हैं, स्वय में प्रीति समाती नहीं उमड़ी पड़ती है। श्राज्ञा माँग माँग कर बहुत तरह के राज्य कार्य करते हैं । ३२५॥ 970- पुलकगात हिय सिय रघुबीरू । जीह नाम जप लोचन-नीरू ॥ लखन राम सिय कानन असहीं । भरतमवनबसितपतनकसही॥१॥ शरीर पुलकायमान है, हृदय में सीताजी और रघुनाथजी का रूप वर्तमान है, जीभ से नाम जपते हैं और नेत्रों में प्रेमाश्रु भरा है । लक्ष्मणजी, रामचन्द्रजी और सीताजी पन में बसते हैं और भरतजी घर में रह कर शरीर को तप से कसते हैं ॥१॥ दोउदिसिसमुति कहतसब लागू । सब विधि भरत सराहन जोगू। सुनि ब्रत नेम साधु सकुचाही । देखि दसा मुनिराज लजाहीं ॥२॥ छोनों ओर की दशा समझ कर सब लोग कहते हैं कि भरतजी सब तरह सराहने योग्य हैं। उनके व्रत नेम को सुन कर साधु सकुचाते हैं और हालत देख कर मुनिराज लजा परम पुनीत भरत आचरनू । मधुर मज्जु मुद मङ्गल करनू हरन कठिन कलि कलुष कलेंसू । महा-माह-निसि दलन दिनेसू ॥३५ भरतजी का परम पवित्र आचरण सुनने में मधुर और सुन्दर प्रानन्द माल का करने वाला है। कलियुग के कठिन पाए और कष्टों को हरनेवाला तथा महा-मोह रूपी रात्रिको नसाने में सूर्य है ॥ ३॥ - ॥ जाते हैं ॥२॥ 1.. ॥