पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७४

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प्रथम सोपान, बालकण्ड । कवियों को प्रणाम किया, इससे लोग यह न अनुमान करें कि छोटे को प्रणाम क्यों किया, इसलिए ऐसा कहा कि छोटाई बड़ाई या ऊँच नीच का भेद न रख कर बन्दना करता हूँ। सभा की प्रति में प्रवनउँ सबहिँ कपट सब स्यागे' पाठ है। प्रसन्न देहु बरदानू । साधु-समाज भनिति सनमानू ॥. जो प्रबन्ध बुध नहिं आदरही । सो बम बादि बाल-कबि करहीं ॥४॥ प्रसन्न होकर यह वरदान दीजिए कि मेरी कविता का सज्जनों के समाज में श्रादर हो । जिस काव्य का बुद्धिमान 'लोग आदर नहीं करते, वह परिश्रम नाहक ही मूर्ख कवि करते हैं ॥ ४॥ कीरति भनिति भूति भलि साई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥ राम-सुकीरति भनिति भदेसा । असमञ्जस अस हमहि अंदेसा ॥५॥ कीर्ति, कविता और सम्पत्ति वही अच्छी है जोगंगाजी के समान सव के लिए कल्याण करनेवाली हो । रामचन्द्रजी की कीर्ति मनोहर है, किन्तु मेरी कहनूति भही है । मुझे इसी का असमस और अन्देशा है ॥ ५ ॥ तुम्हरी कृपा सुलभ सोउ मारे । सियनि सुहावनि टाट पटोरे ॥६॥ आप की कृपा से वह मुझे सुगम है, टाट की हो या रेशम की सिलाई, अच्छी होने पर सुहावनी लगती ही है ॥ ६॥ पूर्वार्द्ध उपमेय वाक्य और उत्तरार्द्ध उपमान वाक्य है । दोनों में बिम्ब प्रतिविम्व भाव झलकता है। जैसे टाट पर हो या रेशमी वस्त्र पर, अच्छी सिलाई होने से दोनों सराहनीय होती है । उसी तरह कविता चाहे संस्कृत की हो या हिन्दीभाषा की, रचना प्रणाली की प्रशंसा होती ही है, यह 'दृष्टान्त अलंकार' है। दो०-सरल कबित कीरति बिमल, सोइ आदरहि सुजान । सहज बयर बिसराइ रिपु, जो सुनि 'करहिँ बखान ॥ जो कविता सरल हो और जिसमें स्वच्छ यश वणन हुआ हो, विद्वान उसीका आदर करते हैं । जिसे सुन कर स्वाभाविक शत्रु ता भुला कर (शत्रु भी) बखान करते हैं। से. न होइ बिनु बिमल मति, माहि मति-बल अति थोर । करउ कृपा हरि-जस कहउँ, पुनि पुनि करउँ निहोर ॥ वह (कविता) बिना निर्मल बुद्धि के नहीं होती और मुझे बुद्धि का बल थोड़ा है। इसलिए बार बार प्रार्थना करता हूँ कि कृपा कीजिए जिससे हरियश वर्णन कर। मराल । कबि कोबिद रघुबर-चरित,-मानस बाल-बिनय सुनि सुरुचि लखि, मो पर हाहु कृपाल रघुनाथजी के चरितरूपी भानसरोवर के सुन्दर राजहंस रुपी कवि और विज्ञान बालक की बिनती सुन कर तथा श्रेष्ट अभिलाषा लख कर दयालु हो