पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७४०

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ६७६ नेत्र, जटो का जूड़ा बनाये अच्छी तरह शोभायमान, सीताजी और लक्ष्मणजी के सहित मार्ग में विचरते हुए श्रानन्दरूप रामचन्द्रजी को मैं भजता हूँ ॥२॥ सा-उमा राम-गुन-गूढ़, पंडित मुनि पाहिँ बिरति । पावहि मोह चिमूढ, जे हरि-विमुख न धरम-रति ॥ शिवजी कहते हैं-हे मा ! रामचन्द्रजी का चरित्र छिपे भेदों से भरा है। इससे पण्डित और मुनि वैराग्य पाते हैं। किन्तु जो महामूर्ख भगवान से विमुख हैं और जिनकी धर्म में प्रीति नहीं है, वे प्रज्ञान को प्राप्त होते हैं। राम गुण गूढ़ से पण्डित मुनि को वैराग्य मिलना और मूर्ख अधर्मियों को अशोन प्राप्त, वस्तु एक पर कार्य विरुद्ध प्रकट होना 'प्रथम व्याघात अलंकार' है । इस लोरठा में अरण्य- काण्ड के कथा की सूचना है । अनि, सरभङ्ग मादि वैराग्य और खर दूषण रावणादि को मोह प्राप्त होना 'मुद्रा अलकार' है चौ०-पुर-नर-मरत-प्रीति मैं गाई । मति अनुरूप अनूप सुहाई ॥ अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन । करत जे बन सुर-नर-मुनि भावन ॥१॥ तुलसीदासजी कहते हैं-मैंने अयोध्यानगर-निवासी मनुष्य और भरतजी की सुहावनी अनुपम प्रीति अपनी बुद्धि के अनुसार गान को अब प्रभु रामचन्द्रजी का अत्यन्त पवित्र चरित्र सुनिए, जो वन में देवता, मनुष्य और मुनियों को सुहानेवाला करते हैं ॥१॥ एक बार चुनि कुसुम सुहाये । निज कर भूषन राम बनाये ॥ सीतहि पहिराये मनु सादर । बैठे फटिक-सिला पर सुन्दर ॥२॥ एक बार सुहावने फूलों को चुन कर रामचन्द्रशी ने अपने हाथ से आभूषण बनाये। प्रभु ने उन पुष्पाभरणों को प्रादर-पूर्वक सीताजी को पहनाये और सुन्दर स्फटिक की, चहान पर बैठे (शोमायमान हो रहे) हैं ॥२॥ सीताजी के प्रति रामचन्द्रजी के हृदय में प्रीति उत्पन हुई, वह रति स्थायीभाव है। सीताजी पालम्बन विभाष है। एकान्त स्थल उद्दीपन विभाव है। फूलों को चुन कर उनके गहने बनाना और प्रिया को पहनाना अनुभाव है। चपलतादि सञ्चारी भाषों द्वारा वृद्धि को प्राप्त होकर 'संयोग र रस' हुआ है। सुरपति-सुत धरि बायस बेखा । सठ चाहत रघुपति बल देखा ॥ जिमि पिपीलिका सागर थाहा । महा-मन्द-मति पावन चाहा ॥३॥ इन्द्र का पुत्र (जयन्त) कौए का रूप धारण कर के वह दुष्ट रघुनाथजी का बल देखना (आज़माना) चाहता है । जैसे चीटी समुद्र को थाहना चाहे वैसे ही वह महा नीव बुद्धि (रघुनाथजी के पराक्रम का थाह) पाना चाहता है ॥३॥ ।