पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७४१

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६६० रामचरित मानस । सीता परत चाँच हति भागां । सूढ़ मन्द-मति-कारन कागा॥ बला रुधिर रघुलाया जाना । सौंक धनुष सायक सन्धाना ॥१॥ वह सूर्ख नीचबुद्धि का हेतु कौशा सीताजी के चरण में चोंच मार कर भगा । जब रक्त . यह चला, तब रघुनाथजी ने जाना, धनुष पर सीक का पाप जोड़ा l देश-अति कृपाल रघुनायक, सदा दीन पर नेह । ता सन आइ कीन्ह छल, सूरख अवगुन-गेह ॥१॥ अत्यन्त कृपालु रघुनाथजी सदा दोनों पर स्नेह करते हैं, वह मूर्ख दुर्गुणों का स्थान (जयन्त) उन से आ कर छल किया ! ॥१॥ चौध-प्रेरित मन्त्र ब्रह्म-सर धावा । चला शाजि बायस अय पावा ॥ धरि निज-रूप गयउ पितु पाहीं। रामबिमुख राखा तेहि नाहीं ॥१॥ मम्ब से चलाया हुआ प्रमवाण दौड़ा, फौमा भयभीत होकर भाग चला। अपना रूप धारण कर के पिता (इन्द्र) के पास गया, परन्तु रामचन्द्र जी का द्रोही जान कर उन्होंने नहीं रपल्या (रक्षा करने से साफ इनकार कर दिया) ॥१॥' मा निराल उपजी मन नासा । जथा चक्र-भय रिषि दुर्वासा 11 ब्रह्मधाम सिवपुर खन्न लोका । फिरा अमित ब्याकुल भय सोका ॥२॥ निराश हो गया, उसके मन में बड़ी घास उत्पन्न हुई, जिस प्रकार सुदर्शनचक्र के भय से दुर्वासा ऋषि डरे थे। ब्रह्मलोक कैलास और अन्य सभी लोकों में भागता फिरा, थक कर भय और शोक से व्याकुल दुर्वासा ऋषिके चक्र से भयातुर होने की कथा अयोध्या काण्ड में २१७ दोहे के आगे चौथी चौपाई के नीचे की टिप्पणी देखो। काहू बैठन कहा न ओही । राखि को सकइ राम कर द्रोही । आतु मृत्यु पितु समन समाना । सुधा होइ बिष सुनु, हरिजाना ॥३॥ उसको किसी ने बैठने तक के लिए नहीं कहा, रामचन्द्रजी के द्रोही को कौन रख सकता है ? (कोई नहीं)। कागभुशुण्डजी कहते हैं- हेगरुड़ । सुनिये, उसके लिए माता मृत्यु रूपा और पिता यमराज के समान एवम् अमृत विष हो जाता है ॥३॥ मित्र करइ सत्त-रिपु कै करनी । ता कह बिबुध-नदी बैतरनी॥ सब जग तेहि अनलहु ते ताता । जो रघुधीर बिमुख सुनु भ्राता net मित्रको शत्रु की करनी करता है, उसको गङ्गाजी वैतरणी नदी हो जाती हैं। हे भाई! सुनिए, जो रघुनाथजी का विरोधी है, उसको सारा संसार अग्नि से भी बढ़ कर तत हो जाता है | सभा की प्रति में इस चौपाई के बाद एक दोहा भी है। किन्तु गुटका में वह नहीं है। वह दोहा दोपक है। गया ।