पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७४२

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तृतीय सोपान, अरण्यकाण्ड । ६८१ नारद देखा बिकल जयन्ता । लागि दया कोमलचित सन्ता। पठवा तुरत राम पहि ताही। कहेखि पुकारि प्रनत-हित पाहो ॥५॥ नारदजी ने जयन्त को व्याकुल रेखा, सन्तों का चित्त कोमल होता है, उन्हें क्या लगी। उसको तुरन्त रामचन्द्रजी के पास भेजा, जयन्त ने पुकार कर कहा कि-हे शरणागतों के हितकारी ! मेरी रक्षा कीजिप ॥५॥ आतुर समय गहेसि पद जाई । त्राहि त्राहि दयाल रघुराई। अतुलित-बाल अतुलित-प्रभुताई । मैं मति-मन्द जानि नहिं पाई ॥६॥ इस तरह भयभीत हो शीघ्र जाफर पाँव पकड़ लिया और बार बार कहने लगा कि है दयालु रघुनाथजी ! मेरी रक्षा कीजिए. रक्षा कीजिए। आप अनन्त बल. और अपार महिमा को मैं नीच-बुद्धि नहीं समझ पाया ॥ ६॥ निज कृत करम जनित फल पायउँ । अब प्रभुपाहि सरन तकि आयउँ । सुनि कृपालं अति-आरत-बानी । एक नयन करि तजा मवानी ॥७॥ अपने किये कर्मों से उत्पन्न फल को मैं पा गया, हे प्रभो ! अब आप की शरण में आश्रय लेने आया हूँ, मेरी रक्षा कीजिए । शिवजी कहते हैं-हे भवानी ! कृपालु रामचन्द्रजी उसकी अत्यन्त दुःख भरी वाणी सुन कर एक आँख का कर के छोड़ दिया ॥७॥ यहाँ पार्वतीजी ने सन्देह किया कि स्वामिन् ! जब उसकी एक आँख फोड़ की गई, तब कौन सी दया हुई ? इस पर शङ्करजी कहते हैं सो०-कीन्ह मोह-बस द्रोह, जद्यपि तेहि कर बध उचित । प्रभु छाड़ेउ करि छोह, को कृपाल रघुबीर सम ॥२॥ उसने अचान-वश द्रोह किया, यद्यपि उसका वध करना ही उचित था । तो भी रामचन्द्रजी ने दया कर के छोड़ दिया, रघुनाथजी के समान दयालु कौन है ? ॥२॥ चौ०-रघुपति चित्रकूट मसि नाना । चरित किये सुति सुधा समाना बहुरि राम अस मन अनुमाना। होइहि भोर सबहि माहि जाना॥१॥ रघुनाथजी ने चित्रकूट में रह कर नाना तरह के कानों को अमृत के समान (मधुर सुख- दायी) चरित्र किये। फिर रामचन्द्रजी ने मन में ऐसा अनुमान किया कि मुझे सभी ने जान लिया, अब यहाँ भीड़ होगी ॥१॥ साधारण अर्थ के सिवा श्लिष्ट शम्शे द्वारा कविजी एक गुप्त अर्थ को खेल कर कहते हैं कि रामचन्द्रजी ने मन में विचार किया, मुझे सभी जगह जाना है अब यहाँ रहने से भीर (देरी) होगी 'विकृतोक्ति अलंकार' है। सकल मुनिन्ह सन बिदा कराई । सीता सहित चले दोउ भाई॥ अत्रि के आस्रम जब प्रभु गयऊ । सुनत महामुनि हरषित मयऊ ॥२॥ सम्पूर्ण मुनियों से विदा होकर सीताजी के सहित दोनों भाई चले ! प्रभु रामचन्द्रजी जब अनि के आश्रम में गये, सुनते ही महामुनि आनन्दित हुए ॥२॥ 1