पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७४३

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रामचरित मानस । पुलकित गात अनि उठि धाये । देखि राम आतुर चलि आये ॥ करत दंडवत मुनि उर लाये । प्रेम-बारि दोउ जन अन्हवाये ॥३॥ अत्रिजी पुलकित शरीर से उठ कर दौड़े, मुनि को आते देख कर रामचन्द्रजी तुरस्त भागे पढ़ आये । दण्डवत करते हुए मुनि ने (रामचन्द्रजी को) पृदय से लगा लिया, प्रेम के आँसुओं से दोनों जनों को स्नान कराया ॥३॥ देखि हाम छबि नयन जुड़ाने । सादर निज-आसम तय आने । करि पूजा कहि बचन सुहाये । दिये मूल फल प्रभु मन भाये vu रामचन्द्रजी की छवि को देख कर आँख शीतल हुई,तय आदर के साथ अपने आश्रम में ले आये । पूजा कर के सुहावने वचन कह कर मूल और फल दिये, वे प्रभु रामचन्द्रजी के मन में अच्छे लगे ॥२॥ सो०-प्रक्षु आसन आसीन, भरि लोचन सोभा निरखि । मुनिबर परम प्रबीन, जारि पानि अस्तुति करत ॥३॥ प्रभु रामचन्द्रजी आसन पर विराजमान है, आँख भर उनकी शोभा देख कर परम प्रवीण मुनिवर (अभिजी) हाथ जोड़ कर स्तुति करने लगे ॥३॥ नगस्वरुपिणी-वृत्त। नमामि भक्तवत्सलं । कृपालु-शील-कोमलं ॥ भजामि ते पदाम्बुजं । अकामिनां स्वधामदं ॥१॥ हे कृपालु, भक्त वत्सल और कोमल शीलवाले ! मैं आप को नमस्कार करता हूँ। आप के उन चरण-कमलो का सेवन करता हूँ जो कामना-रहित प्राणियों को अपना धाम (वैकुण्ठ) देते हैं ॥१॥ निकाम-श्याम-सुन्दरं । भवाम्बुनाथ-मन्दरं ॥ प्रफुल्ल-कज्ज-लोचनं । मदादि-दोष-मोचनं ॥२॥ आप का श्यामल शरीर अत्यन्त सुन्दर है, संसार रूपी समुद्र को मथनेवाले श्राप मन्दर पर्धत हैं । खिले हुए कमल के समान नेत्र हैं और आप घमण्ड श्रादि दोषों को छुड़ानेवाले हैं ॥२स प्रलम्ब-बाहु-विक्रमं । प्रभाप्रमेय वैभवं ॥ निषद-चाप-सायकं । धरं त्रिलोक-नायकं ॥३॥ हे प्रभो ! भोप की लम्बी भुजाओं का पराकम भीर आप का ऐश्वर्य अतुलनीय है। तरकस और धनुष-बाण धारण किये आप तीनों लोकों के स्वामी हैं |