पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७४७

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1 रामचरित मानस। जो अपने पति को धोखा दे कर पराये पुरुष से प्रेम करतो है, वह सौ करूप पर्यन्त गैरष. नरक में पड़ती है ॥ छन सुख लागि जनम सतकोटी । दुख न समुझ तेहि सम को खाटी। बिनु सम नारि परमगति लहई । पतिव्रत-धरम छाडि छल गहई ॥ क्षण भर के सुख के लिये जो असंख्यों जन्म के दुःख को नहीं समझती, उसके समान खोटी कौन है । विना परिश्रम स्त्री उत्तम गति पाती है जो छल छोड़ कर पतिवत-धर्म ग्रहण करती है ॥६॥ पति प्रतिकूल जनम जहँ जाई । बिधवा होइ पाइ तरुनाई ॥१०॥ जो पति के प्रतिकूल होती है, वह जहाँ जा कर जन्म लेती है, जवानी पाने पर विधवा हो जाती है ॥१०॥ सो-सहज अपावनि नारि, पति सेवंत सुभ गति लहइ । जस गावत खुसि चारि, अजहुँ तुलसिका हरिहि प्रिय ॥ स्त्री स्वभाव ही से अपवित्र होती हैं, वे पति की सेवा करने से अच्छी गति पाती हैं। । चारों वेद यश गाते हैं, अब भी तुलसी (वृन्दा ) भगवान को प्यारी है। प्रथम कही हुई पात का हेतुसूचक बात कह कर समर्थन करना 'काग्यलिङ्ग अलंकार' है वृन्दा का संक्षित वृत्तान्त बालकाण्ड में १२३ दोहा देखो। सीता तव नाम, सुमिरि नारि पतिब्रत करहि । तोहि प्रान-प्रिय राम, कहेउँ कथा संसार हित ॥शा हे सीता ! सुनो, तुम्हारा नाम स्मरण कर स्त्रियाँ पतिव्रत-धर्म पालन करेंगी । तुम्हें राम- चन्द्रजी प्राण-प्रिय हैं, यह कथा मैं ने संसार के हित के लिए कही है ॥५॥ चौ-सुनि जानकी परम सुख पावा। सादर तोसु चरन सिर नावा ॥ तब मुनि सन कह कृपानिधाना । आयसु होइ जाउँ बन आना ॥१॥ सुन कर जानकजी ने अत्यन्त सुख पाया और पावर के साथ अनस्या के चरणों में सिर नवाया। तब कृपानिधान रामचन्द्रजी ने अत्रि मुनि से कहा कि आशा हो तो दूसरे वन मैं जाऊँ ॥३॥

सन्तत मा पर कृपा करेहू । सेवक जानि तजेहु जनि नेहू ॥ धरम-धुरन्धर प्रभु कै बानी । सुनि सप्रेम बोले मुनिज्ञानी ॥२॥ . । निरन्तर मुझ पर कृपा कीजियेगा सेवक समझ कर स्नेह न छोड़ियेगां। धर्मपुरधर प्रभु रामचन्द्रजी की वाणी सुन कर मानीमुनि प्रेम से बोले ॥२॥