पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सरीरा ॥५॥ तृतीय सोपान, अरण्यकाण्ड । ६५७ जासु कृपा अज सिव सनकादी । चहत परमारथबादी॥ ते तुम्ह राम अकाम पियारे । दीनबन्धु मृदु बचन उचारे ॥३॥ जिसकी कृपा बला. शिव, सनकादि और सम्पूर्ण परमार्थवादी (तत्वज्ञ) चाहते हैं । हे राम- चन्द्रजी! वही श्राप निष्काम जनों के प्यारे, दीनों के सहायक इस तरह कोमल वचन कहे हैं ॥३॥ अब जानी में श्री चतुराई । भजिय तुम्हहिं सब देव बिहाई । जेहि समान अतिसय नहिँ कोई। ता कर सील कस न अस होई ॥४॥ अब आप की चतुराई मैं ने समझी कि सब देवताओं को छोड़ कर आप ही को भजना चाहिए । जिसकी बराबरी में बढ़ कर कोई नहीं है, उसका शील ऐसा क्यों न हो? वाच्वार्थ और व्यहार्थ बराबर है कि जैसे आप सब से बड़े हैं, वैसे ही आप का शील सर्वश्रेष्ठ है । यह तुल्पप्रधान गुणीभूत व्यंग है। केहि बिधि कहउँ जाहु अब स्वामी। कहहु नाथ तुम अन्तरजामी ॥ अस कहि प्रभु बिलोकि मुनि धीरा । लोचन जल बह पुलक हे स्वामी ! अब यह किस तरह कहूँ कि जाइये, हे नाथ ! आप अन्तर्यामी हैं, आप ही काहिए। ऐसा कह कर प्रभु रामचन्द्रजी को देख धीरमुनि का शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों से जल बहने लगा ॥५॥ प्रेम से नेत्रों द्वारा जल बहना और शरीर रोमाञ्चित होना सात्विक अनुभाव है। हरिगीतिका-छन्द । तन पुलक निर्भर प्रेम पूरन, नयन मुख-पङ्कज दिये। मन-ज्ञान-गुन-गोतीत प्रक्षु में, दीख जप तप का किये ॥ जप जोग धरम-समूह ते नर, भगति अनुपम पावई। रघुबीर-चरित पुनीत निसि दिन, दासतुलसी गावई ॥१॥ शरीर पुलक और पूर्ण प्रेम से भरा हुआ है तथा नेत्र मुख-कमल में लगाये हैं । विचारते हैं कि जो परमात्मा मन, शान, गुण और इन्द्रियों से परे हैं; मैं ने उनका दर्शन पाया, वह कौन सा जप तप किया था? जप, योग और धर्म समूह कर के मनुष्य जिनकी अनु- पम भक्ति को पाते हैं। उन्हीं रघुनाथजी के पवित्र यश को दिन रात तुलसीदास गाते हैं ॥३॥ दो-कलिमल समन दमन दुख, राम सुजस सुखमूल । सादर सुनहि जे तिन्ह पर, राम रहहिं अनुकूल । रामचन्द्रजी का सुन्दर यश कलि के पापों का नाशक, दुःख को दबानेवाला और आनन्द का मूल है। इसको जो आदर से सुनते हैं उन पर रामचन्द्रजी प्रसन्न रहते हैं। ,