पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७४९

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॥ रामचरित मानस । सो०-कठिन काल मल-कोस, धरम न ज्ञान न .जोग जप । परिहरि सकल भरोस, रामहि अजाहिँ ते चतुर नर ॥६॥ यह कलिकाल पड़े ही कठोर पापों का भण्डार है, इसमें न धर्म, न बान, न योग श्रार न जप है। सब का भरोसा छोड़ कर जो रामचन्द्रजी को सजते हैं घे ही मनुष्य चतुर हैं ॥६॥ चौ०-मुनि पद कमल नाइ करि सोसा। चले बनहिँ सुर नर मुनि ईसा ॥ आगे राम अनुज पुनि पाछे । मुनिबर बेष बने अति काछे ॥१॥ देवता, मनुष्य और मुनियों के स्वामी मुनि के चरण-कमलों में मस्तक नवा कर वन को चले । आगे रामचन्द्रजी फिर उनके पीछे छोटे भाई लक्ष्मणजी श्रेष्ठ मुनियों के अत्यन्त सुन्दर वेश बनाये हैं ॥१॥ उभय बीच सिय साहइ कैसी । ब्रह्म जीव विच माया जैसी सरिता बन गिरि अवघट घाटा। पति पहिचानि देहि घर बाटा ॥२॥ दोनों भाइयों के बीच में किस तरह सीताजी शामित हो रही है, जैसे ब्रह्म और जीव के बीच में माया साहती है। नदी, वन, पर्वत और दुर्गम घाट स्वामी को पहचान कर सब अच्छा माग कर देते हैं ॥२॥ यही चौपाई अयोध्याकाण्ड में १२२ दोहे के आगे है। वहीं इस प्रकार पाठ है- "मागे राम लखन बने पाछे । तापस वेष विराजत काछे । उभय वीच सिय साहति कैसे। ब्रह्म जीव विच माया जैसे। जहँ जहँ जाहि देव रघुराया । करहिं मेघ तह तहँ नभ छाया । मिला असुर विराध मग जाता। आत्रतही रघुबीर- निपाता ॥३॥ जहाँ जहाँ देव रघुनाथजी जोते हैं, वहाँ वहाँ आकाश में बादल छाया करते हैं। मार्ग में जाते हुए विराध राक्षस मिला, आते ही रामचन्द्रजी ने उसका नाश कियां ॥३॥ विराध दैत्य का सामने आना कारण और निपात होना कार्य एक साथ ही वर्णन 'अक्रमातिशयोकि अलंकार' है । विराध पूर्वजन्म मैं गन्धर्व था। कुवेर की सेवा करने में चूरू गया, उन्होंने क्रुद्ध होकर शाप दिया कि.तू जा कर राक्षस हो। गन्धर्व के बहुत प्रार्थना करने पर उद्धार बतलाया कि परमात्मा रामचन्द्र के हाथ वध होने से तू अपनी गति पावेगा। आज वह अपनी गति को प्राप्त हुआ। तुरतहि रुचिर रूप तेहि पावा । देखि दुखी निजधाम पठावा ॥ पुनि आये जहँ मुनि' सरभङ्गा । सुन्दर अनुज जानकी सङ्गा ॥२॥ तुरन्त हो उसने सुहावना रूप पाया, उसे दुःखी देख कर अपने लोक को भेजा। फिर सुन्दर छोटे भाई .लक्ष्मण और जानकीजी के साथ जहाँ शरभ-मुनि रहते थे वहाँ आये ॥