पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७५०

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, तृतीय सोपान, अरण्यकाण्ड । ६६९ दो-देखि राम-सुख-पङ्कज, मुनिबर-लोचन-शृङ्ग । सादर पान करत अति, धन्य जन्म सरभङ्गा रामचन्द्रजी के मुख कपी कमल को देख कर मुनिवर के भ्रमर रूपी नेन प्रादर के साथ (छषि कपी मकरन्द) पान करते हैं, शरमन मुनि का जन्म अतिशय धन्य है ॥७ चौ०-कह मुनि सुनु रघुबीर कृपाला । सङ्कर मोनस राजमराला ॥ जात रहे मिरजि के धाला । सुनेॐ सावन बन अइहहिं रामा॥१॥ मुनि ने कहा-हे कृपालु रघुवीर! सुनिए, श्राप शङ्करजी के मन रूपी मानसरोवर के राजहान्स हैं । मैं नहा के लोक को जाता था, कान से सुना कि रामचन्द्रजी वन में आयेंगे (तर ब्राह्मधाम जाने का विचार त्याग दिया) ॥१॥ 'मानस' शब्द में जब तक मलेपन माने और उसके दो अर्थ 'मन तथा मानसरोवर न लगा तब तक सपक का चमत्कार न भासेगा। चितवत पंथ रहेउँ दिन राती । अब प्रभु देखि जुड़ानी छाती । नाथ सकल साधन मैं हीना । कीन्ही कृपा जानि जन दीना ॥२॥ दिन रात मैं रास्ता निहारता था, अब स्वामी को देख कर छाती ठपढी हुई । हे नाथ ! मैं सम्पूर्ण साधनों से रहित हूँ, श्राप ने मुझे दीनजन जान कर दया की है ॥ २॥ रामचन्द्रजी का दर्शन चितवाही बात शरमन मुनि को बिना किसी यत्त के बैठे बिठाये हुई 'प्रथम प्रहर्षण अलंकार' है। सो कछु देव न माहि लिहारा । निज पन राखेहु जन-मन-चोरा ॥ तब लगि रहहु दीन हित लागी । जबलगि मिलउँ तुम्हहिँ तनु त्यागी॥३॥ हे देव ! वह कुछ मुझ पर एहसान नहीं है, आप भकजने के मन को चुरानेवाले हैं, अपनी प्रतिमा (जो मोहि भजै सजो मैं ताही) को रक्खा है । इस दीन की भलाई के लिए तब तक ठहर जाइये जब तक मैं शरीर त्याग कर भाप में मिल न जाऊँ॥३॥ जोग जग्य जप तप जत कीन्हा । प्रभु कह देइ प्रगति बर लीन्हो ॥ एहि बिधि सर रचि मुनि सरमना । बैठे हृदय छाडि सथ सङ्गो ॥४॥ योग, यक्ष, जप और तपस्या जितनी की थी, वह प्रभु रामचन्द्रजी को अर्पण कर के भक्ति का वरदान लिया। इस तरह चिता रच कर शरमा मुनि हदय से सब साथ त्याग कर उस पर बैठे ॥४॥ दो०-सीता-अनुज समेत प्रभु, नील-जलद-तनु स्याम । मम हिय बसहु निरन्तर, सगुन-रूप शोराम ॥ शरमा ऋषि बोले-हे प्रभो ! सीताजी और नवमणजी के सहित नीले बादल के समान श्याम शरीर सगुण-रूप श्रीरामचन्द्र जी आप सदा मेरे हृदय में निवास कीजिए