पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७५२

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हृदय तृतीय सोपान, अरण्यकाण्ड । ६१ चौ०-मुनि अगस्ति कर सिध्य सुजाना । नाम सुतीछन रतिभगवाना। मन क्रम बचन राम पदसेवक । सपनेहुँ आन भरोसनदेव ।।१।। अगस्तमुनि का चतुर शिष्य जिनका सुतीक्ष्ण नाम था और भगवान के चरणों में उनकी भीति थी। मन, फर्म और वचन से वे रामचन्द्रजी के चरणसेवक थे, स्वप्न में भी दूसरे देवता का उन्हें विश्वास नहीं था ॥१॥ प्रभु आगवन लगन सुनि पाना । करत मनोरथ आतुर धावा ।। हे बिधि दीनबन्धु रघुराया । मे से सठ पर करिहहिं दाया ॥२३॥ प्रभु रमचन्द्रजी का श्रागमन कान से सुन पाया, मनोरथ करते हुए शीघ्रता से दौड़ा। हे विधाता ! रधुनाथजी दीनबन्धु हैं, क्या मेरे समान दुष्ट पर भी दया करेंगे ? ॥२॥ सहित अनुज मोहि राम गोसाँई । मिलिहहि निज सेवक की नाई। मारे जिय परोस दृढ़ नाहीं । लगति बिरति न ज्ञान मन माहीं ॥३॥ स्वामी रामचन्द्रजी छोटे भाई लक्ष्मणजी के लहित मुझसे अपने सेवक की तरह मिलेंगे? मेरे में पका भरोसा नहीं है और भक्ति वैराग्य, ज्ञान मन में नहीं है ॥३॥ भरोसा, भक्ति, ज्ञान, वैराश, मुनि मन में वर्तमान है; परन्तु सही बात को काकु से नहीं करना काकुक्षिप्त गुणीभूत व्यङ्ग है। नहिँ सतसङ्ग जोग जप जागा । नहिँ दुढ़ चरन कमल अनुरागा ॥ एक बानि करूनानिधान की । खो प्रिय जा के गति न आन को ॥४॥ न तो मैं ने सत्सल, योग, जप, यज्ञ किया और न चरणकमलों में बढ़ प्रेम ही है। दया. निधान रामचन्द्रजी का एक स्वभाव है कि उनको वह प्रिय है जिसको दूसरे का सहारा नहीं है ॥ ४॥ होइहहिं सफल आजु मम लोहन । देखि बदन-पङ्कज भव-मोचन । निर्भर-प्रेम-मगन मुनि ज्ञानी । कहि न जाइ.सो दसा मवानी ॥३॥ संसार से छुड़ानेवाले कमल के समान सुन्दर मुख देख कर आज मेरो आँखें सफल होगी। शिवजी कहते हैं-हे भवानी ! ज्ञानीमुनि भरपूर प्रेम में मग्न हैं, उनकी वह दशा कही नहीं जाती है ॥ ॥ दिसि अरु भिदिसि पन्ध नहिं सूझा । को मैं चलेउँ कहाँ नहिँ बूझा ॥ कबहुँक फिरि पाछे पुलि जाई । कबहुँक नृत्य करइ गुन गाई ॥६॥ दिशा, दिशामा के कोण और रास्ता नहीं सूझता है, मैं कौन हूँ और कहाँ जाता हूँ, इसका ज्ञान नहीं रह गया । कभी लौट कर फिर पीछे जाते हैं और कभी गुण गान कर नाचने लगते हैं ॥६॥