पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७५३

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६.२ रामचरित मानस.। अबिरल मेंभ-भगति मुलि पाई। प्रख देखहिँ तरु ओट लुकाई । अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा । प्रगटे हृदय हरन भव भीरा ॥ सुनि प्रेमलक्षणा अविछिन्न भक्ति पांकर मग्न हैं, प्रभु रामचन्द्रजी वृक्ष की ओर में लिप कर ( उनका कौतुक ) देखते हैं.। संसार की व्यथा के हरनेवाले रघुनाथजो अत्यन्त प्रीति देख कर मुनि के हृदय में प्रकट हुए ॥ ७॥ . मुनि मग माँझ अचल होइ बैसा । पुलक सरीर पनस-फल जैसा तब रघुनाथ निकट चलि आये। देखि दसा निज जन मन. माये ॥ रास्ते में मुनि निश्चल हो कर बैठ गये, उनका शरीर कटहल के फल की तरह रोमाशित हो गया। तब रघुनाथजी चल कर पास आये और अपने भक्त को दशा देख कर मन में प्रसन्न हुए ॥८॥ मुनिहि राव बहु भाँति जगाना । जाग न ध्यान-जनित सुख पावा ॥ भूप-रूप तब राम दुरावा । हृदय चतुर्भुज-रूप देखावा ॥ रामचन्द्रजो ने मुनि को बहुत तरह ले जगाया, पर वे सचेत नहीं हुए, क्योंकि ध्यान से होनेवाले श्रानन्द को प्राप्त हैं । तब रामचन्द्रजी ने उनके हदय से राजा का स्वरूप छिपा कर चतुर्भुज रूप दिखाया ॥३॥ पहले सुतीक्ष्ण मुनि के हृदय में राजा रामचन्द्र का रूप था, फिर क्रम से विष्णु भगवान फा चतुर्भुज रूप पाया 'द्वितीय पर्याय श्रलंकार है। मुनि अकुलाइ उठा पुनि कैसे। शिकल हीन-मनि फनिवर जैसे। आगे देखि दाम तन-स्याला । सीता अनुज सहित सुख-धामा ॥१०॥ फिर मुनि कैले व्याकुल हो उठे, जैले मणि के पिना साँप घबरा जाता है। सुख के स्थान श्याम शरीर रामचन्द्रजी को सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी के सहित सामने देख परेउ लकुट इव चरनन्हि लांगी। प्रेम-मगन मुनिबर बड़भागी। झुज-बिसाल गहि लिये उठाई। परम-प्रीति राखे उर लाई ॥१९॥ बड़े भाग्यवान सुनिश्रष्ठ प्रेम में मग्न हो लकड़ी की तरह भूमि पर गिर कर चरणों में लगे । रामचन्द्रजी ने अपनी विशाल भुजाओं से पकड़ उन्हें उठा लिया और अत्यन्त प्रीति-पूर्वक छाती से लगा रक्खा ॥ ११ ॥ मुनिहि मिलत अस साह कृपाला । कनकतरुहि जनु भैंट तमाला', राम बदन बिलोक मुनि ठाढ़ा । मोनहुँ चित्र माँझ लिखि काढा ॥१२॥ कृपाल रामचन्द्रजी मुनि से मिलते हुए ऐसे शोभित हो रहे हैं, मानो सुवर्ण के वृक्ष से तमाल का पेड़ भेटता हो। मुनि खड़े हो रामचन्द्रजी का मुख देखते हैं, वे ऐसे माम होते हैं माने तसवीर में लिख कर उरहे हो ॥ १२॥ कर-॥१०॥