पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७५४

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तृतीय सोपान, अदायकाण्ड । ६३ तमाल वृक्ष और रामचन्द्रजी, सोने का पेड़ और मुनिवर परस्पर उपमान उपमेय हैं। सुवर्ण का विटप नहीं होता और वृक्ष जड़ है के आपस में मिलते नहीं, फेवल कवि की कल्पनामा 'अनुक्कविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है। दो०-तब मुनि हृदय धीर धरि, गहि पद बारहिँ बार । निज-आशम प्रभु आनि करि, पूजा विविध प्रकार ॥१०॥ तय मुनि ने हृदय में धीरज धर क्षर बार बार पाँव पकड़े। अपने श्राश्रम में प्रभु राम- चन्द्रजी को ले पा कर नाना प्रकार से पूजन किया ॥१०॥ चौ०-कह मुनि प्रक्षु सुनु बिनती मारी। अस्तुति करउँ छवल बिधि तारी॥ महिमा अमित्त सोरि मति थोरी। रनि सन मुख स्वदोस जारी ॥१॥ मुनि ने कहा हे-स्वामिन ! मेरी विनती सुनिए, मैं किस प्रकार शाप की स्तुति कर । श्राप की महिमा बहुत बड़ी है और मेरी बुद्धि थोड़ी है, सूर्य के सामने जुगुनू का प्रकाश (कैसे हो सकता है ?) ॥१॥ महिमा बड़ी और बुद्धि थोड़ी है, यह उपमेय वाक्य है। सूर्य के सन्मुख खद्योत का प्रकाश उपमान वाक्य है। बिना बाचक पद के समता दिखलाई जाती है । दोनों वाक्यो में विम्य प्रतिविम्ब भाव झलकता है अर्थात् जैसे अल्पबुद्धि से बड़ी महिमा नहीं कही जा सकती, वैसे सूर्य की प्रमा के आगे जुगुनू प्रकाशित नहीं हो सकता । यह "पुष्टान्त अलंकार" है। स्याम तामरस दाल सरीर । जठा मुकुट परिधन मुलिचीर ॥ पानि चाप सर कटि तूनीरं । नौनि निरन्तर स्त्रीरघुबीर ॥२॥ श्याम कमल की माला के समान शरार, जटा को मुकुट बनाये और मुनियों के वस्त्र पहने हुए, हाथ में धनुष-बाण लिये, कसर में तरकस कसे श्रीरघुनाथजी को मैं निरन्तर नमस्कार करता हूँ ॥२॥ मोह बिपिन धन गहन खानुः । सन्त सरोरुह-कानन-मानुः ॥ निसिचर करिबरूथ मृगराजः । नातु सदा नो भव-खग बाजः ॥३॥ मोह रूपी कठिन दुर्भध वन के लिये अग्नि, सन्त रूपी कमल-वन के सूर्य, राक्षस रूपी हाथी के झुण्ड के लिये सिंह और संसार रूपी पक्षी के हेतु बाज रूपी आप मेरी रक्षा कीजिए॥३॥ अरुन-नयन-राजीव सुबेसं। सीता नयन-चकोर हर-हृदि-मानस राजमरालं। नौमि राम उर-बाहु-बिसालं ॥४॥ लाल कमल के समान नेत्र, सुन्दर वेष और सीताजी के लोचन रूपी चकोर के चन्द्रमा, शिवजी के हृदय रूपी मानसरोवर के राजहस, विशाल छाती तथा भुजाओवाले रामचन्द्रजी को मैं नमस्कार करता हूँ ॥६॥ । निसेसं।