पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७५६

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तृतीय सोपान, अरण्यकाण्ड । जे जानहिँ ते जानहु स्वामी । सगुन अगुन उर-अन्तरजामी । जो कोसलपति राजिव-नैना । करउ से राम हृदय मम जैनो ॥१०॥ हे स्वामिन् ! आप हदय की बात जाननेवाले हैं, (मैं सत्य कहता हूँ) जो आप को सगुण घा निर्गुण रूप जानते हैं के जाने । मेरे हृदय में वही कमल-नैन रामचन्द्रजी स्थान करें जो अयोध्या के राजा है ॥१०॥ अस अमिलान जाइ जनि भारे । मैं सेवक रघुपति पति मारे । सुनि मुनि बचन राम मन भाये । बहुरि हरषि मुनिवर उर लाये ॥११॥ मेरा ऐसा अभिमान भूल कर भी न जावे कि मैं सेवक हूँ और रघुनाथजी मेरे स्वामी हैं । मुनि के वचन सुन कर रामचन्द्रजी के मन में वे अच्छे लगे, प्रसन्न हो कर फिर उन्होंने मुनिवर को एक्य से लगा,लिया ॥११॥ परम-प्रसन्न जानु मुनि सोही । जो बर माँगहु देउ सो तोही ॥ मुनि कह मैं बर कबहुँ न जाँचा। समुक्ति न परइ झूठ का साँचा ॥१२॥ रामचन्द्रजी योले-हे मुनि ! मुझे अत्यन्त प्रसन्न जान कर जो वर माँगो वही तुम को दूंगा। मुनि ने कहा-प्रभो ! मैं ने कभी वर माँगा नहीं, इससे यह नहीं समझ पड़ता कि क्या भूठ और क्या सच है ॥१२॥ तुम्हहिँ नोक लागइ रघुराई । सो साहि देहु दास सुखदाई ॥ अबिरल भगति झिरति विज्ञाना । होहु सकल गुल-ज्ञान-निधोना ॥१३॥ हे रघुनाथजी ! जो आप को अच्छा लगे वही मुझ को दीजिये क्योंकि आप अपने दास को सुख देनेवाले हैं । रामचन्द्रजी बोले-अविचल भक्ति, वैराग्य, विज्ञान और समस्त गुणों के तुम भण्डार हो ॥१३॥ प्रभु जो दोन्ह से बर मैं पावा । अब सो देहु मोहि जो मावा ॥१४॥ मुनि ने कहा-हे प्रभो! आपने जो वर दिया वह मैं ने पाया । अब उस वर को दीजिये जो मुझे अच्छा लगता है ॥१४॥ पहले निषेध कर आये है कि मैंने कभी वर माँगानहीं, इससे सब झूठ नहीं समझ पड़ता। फिर उसी बात को कहना कि जो मुझे अच्छा लगता है वह वरदान दीजिये 'निषेधा. क्षेप अलंकार' है। दो-अनुज-जानकी सहित प्रभु, चाप-बान-घर राम । मम-हिय- -गगन इन्दु इव, बसहु सदा यह काम ॥११॥ हे प्रभु रामचन्द्रजी 1 छोटे भाई लक्ष्मण और जानकीजी के सहित आप धनुष-बाण धारण किये मेरे पुदय रूपी आकाश में सदैव चन्द्रमा के समान निवास कीजिये, यही अभिलाषा है ॥११॥ . !