पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७५७

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रामचरित मानस । ' सभा की प्रति में 'बसहु सदा नि:काम' पाठ है। उसका अर्थ होगा निष्काम भाव से घलिये। चौ०-एनमस्तु कहि रमानिवासा। हरषि चले कुम्भज-रिषि पासा । बहुत दिवस गुरु दरसल पाये। भये माहि एहि आसम आये ॥१॥ लक्ष्मीनिवास रामचन्द्रजी ने ऐसा ही हो कह कर प्रसन्नता से अगस्त्य मुनि के पास चले । सुतीक्ष्ण मुनि बोले-प्रभो ! गुरुजी के दर्शन पाये बहुत दिन हुए, जब से इस आश्रम में पाये तब से मुझे दर्शन-लाभ नहीं हुआ ॥१॥ अब प्रभु सङ्ग जाउँ गुरु पाहीं । तुम्ह कहँ नाथ निहोरा नाहीं ॥ देखि कृपानिधि मुनि चतुराई । लिये सङ्ग बिहँ से दोउ भाई ॥२॥ अन प्रभु (आप) के साथ गुरुजी के पास जाऊँगा, हे नाथ! आप पर इसका एहसान नहीं है। कृपानिधान-रामचन्द्रजी मुनि की चातुर्य्यता देख कर दोनों भाई हैं से और उन्हें संग में ले लिया ॥२॥ मुनि को रामचन्द्रजी के साथ चलना भीष्ट है , परन्तु इस इच्छित कार्य को गुरु-दर्शन के बहाने लाधन का उद्योग करना "द्वितीय एयारोक्ति अलंकार" है। पन्य कहत निज-भगति अनूपा । मुनि आत्रम पहुँचे सुरभूपा । तुरत सुतीकन गुरु पहिँ गयऊ । करि दंडवत कहत अस भयऊ ॥३॥ देवताओं के राजा रामचन्द्रजी मार्ग में अपनी अनुपम भक्ति कहते हुए मुनि के आश्रम में पहुंचे। तुरन्त हो सुतीक्षण गुरु के पास गये और दण्डवत पार के ऐसा कहते भये कि ॥३॥ नाथ कोसलाधीस कुमारा । आये सिलन जगत-आधारा॥ अनुज समेत बैदेही । निसि दिन देव जपत हहु जेही un हे नाथ! कोशलनरेश दशरथजी) के पुत्र जगत के अधार रामचन्द्रजी अपने छोटे भाई लक्ष्मण और विदेह नन्दिनी के लहित मिलने आये हैं, हे देव ! जिनको आप दिन रात जपते पहले सुतीक्ष्ण ने विशेष बात कही कि जगत के आधार स्वरूप कोशलेशकुमार मिलने भाये हैं। फिर इसका साधारण सिद्धान्त से समर्थन करते हैं कि जिनको श्राप दिन रात अपते हैं 'अर्थान्तरन्यास अलंकार है। सुनत्त अगस्त तुरत उठि धाये । हरि बिलोकि लोचन जल छाये ॥ मुनि पद कमल परे दोउ भाई । रिषि अति प्रोति लिये उर लाई ॥५॥ सुनते ही अगस्तजी तुरन्त उठ कर बौड़े और रामचन्द्रजी को देख उनकी आँखों में जल भर आया । मुनि के चरण-कमलों में दोनों भाई गिरे, ऋषि ने बड़े प्रेम से उन्हें छाती से लगा लिया ॥un . हैं।