पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

हुए ॥७॥ तृतीय सोपान, अरण्यकाण्ड । ६७ सादर कुसल पूछि मुनिज्ञानी। आसन बर बैठारे आनी। पुनि करि बहु प्रकार प्रक्षु पूजा । मोहि सम भाग्यवन्त नहि दूजा ॥६॥ शानीमुनि अगस्त्यजी ने आदर के साथ कुशल पूछ कर और उन्हें लो कर उत्तम श्रासन पर बैठाया। फिर प्रभु रामचन्द्रजी की बहुत तरह ले पूजा कर के बोले कि मेरे समान दूसरा कोई भाग्यवान नहीं है ॥६॥ जहँ लगि रहे अपर मुनिकृन्दा। हरये सब बिलोकि सुखकन्दा ॥७॥ जहाँ तक दूसरे मुनिवृन्द थे, सब धानन्द के मेघ (रामचन्द्रजी) को देश र प्रसा दो-मुनि-समूह महँ बैठे, सनसुख सब की ओर । सरद-इन्दु तन चितवत, मानहुँ निकर चकोर ॥१२॥ मुनि समूह में सव की ओर सुख सामने किये (रामचन्द्रजी) बैठे हैं । (मुनि लोग टकटकी लगाये हुए देखते हैं) के ऐसे मालूम होते हैं मानों शरदकाल के चन्द्रमा को ओर चोरों का . अण्ड निहारता हो ॥१२॥ एक रामचन्द्रजी को सबकी भोर सन्शुख बैठे हुए कहना अर्थात् पीठ किसी की ओर नहीं 'तृतीय विशेष अलंकार' है। चौ-तच रघुबीर कहा मुनि पाहीं । तुम्ह सन प्रमु दुराव कछु नाही। तुम्ह जानहु जेहि कारनआयेउँ। सात तात न कहि समुहाये॥१ तव रघुनाथजी ने मुनि से कहा-हे प्रभो! आप से कुछ छिपाय नहीं है । जिस कारण से मैं आया हूँ वह आप जानते हैं, हे तात! इसी से कह कर नहीं समझाता हूँ ॥१॥ अन सो मन्त्र देहु प्र माही। जेहि प्रकार भारउँ मुनि द्रोही ॥ मुनि मुसुझाने सुनि प्रभु बानी। पूछेहु नाथ लाहि का जानी ॥२॥ हे स्वामिन् ! अब मुझे वह मन्त्र दीजिये, जिस तरह मुनि द्रोहियों (राक्षले) को मा। प्रभु रामचन्द्रजी की वाणी सुन कर मुनि मुस्कुराये और बोले-हे नाथ ! आप मुझे क्या समझ कर पूछते हैं ? (मैं आप को क्या सम्मति दे सकता हूँ) ॥२॥ तुम्हरे भजन-प्रभाव अघारी । जानउँ महिमा कछुक तुम्हारी ॥ अमरि तरु बिसाल तब माया । पल ब्रह्मांड अनेक निकाया ॥२॥ हेअघारी ! श्राप के ही भजन के प्रभाव से मैं आप की कुछ महिमा जानता हूँ। आप की माया विशाल गूलर का वृक्ष है, अनेक ब्रह्माण्ड ही उसके समूह फल हैं ॥३॥ जीव चराचर जन्तु · समाना । भीतर जसहि न जानहिँ आना । ते.फल अच्छक कठिन कराला । तव अय डरत सदा सोउ काला nan स्थावर-जम जीव मला के समान उसके भीतर पसते हैं, पे और (ब्रह्योण्डों) का 65