पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७६१

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७०० रामचरित-मानस । दो०-ईस्वर जीवहि भेद प्रक्षु, सकल कहहु समुझाइ । जा लें हाइ घरन रति, सोक माह भ्रम जाइ ॥१४॥ हे प्रभो ! ईश्वर और जीव का लम्पूर्ण भेद समझा कर कहिये । जिसले श्राप के चरणों में प्रीति हो और शोक, मोह, मम दूर हो जाय ॥ १४ ॥ पाँच प्रश्न लक्ष्मणजी ने किया। (१) शान का रूप क्या है । (२) वैराग्य । (३) माया। (४) भक्ति। (५) ईश्वर और जीव में क्या अन्तर है । परन्तु उत्तर रामचन्द्रजी ने भाक्रम से दिया है। पहले माया का वर्णन कर फिर शान-वैराग्य कहा, उसके पीछे ईश्वर जीष का भेद और सबसे अन्त में भक्ति का वर्णन है। चौक-थोरेहि अहँ सब कहउँ बुझाई । सुनहु लात मति मन चित लाई ॥ मैं अरु और तार से माया । जेहि बस कीन्हे जीव निकाया ॥१॥ रामचम्जी ने कहा-हे तात ! मैं थोड़े ही में समझा कर सब कहता हूँ, आप बुद्धि, मन और वित्त लगा कर सुनिये । मैं और मेरा, ते और तेरा माया है, जिसने समस्त जीयों को अपने वश में कर रक्खा है॥१॥ 'मन और वित्त' दोनों शब्द पर्यायवाची हैं. पहली इष्टि में एक ही अर्थ 'मन' भासता है । परन्तु वास्तव में अर्थ है-"मन और अन्तःकरण की दृति लगा कर सुनिये" 'पुनरुक्तिवदामाल अलंकार' है। गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सेा सब माया जानेहु भाई । तेहि कर.भेद सुनहु तुम्ह साऊ। बिझा अपर अबिझा दोऊ ॥२॥ जहाँ तक इन्द्रियों को प्राप्त (जिसका ज्ञान इन्द्रियों द्वारा होता है) और जहाँ तक मन जाता है, हे भाई! वह सब माया ही जानना । अब उसका जो भेद है तुम वह भी सुनो, एक विद्या-माया और दूसरी अविद्या-माया है ॥२॥ एक दुष्ट अतिसय दुख-रूपा। जा बस जीव परा भव-कूपा एक रच्चाई जग गुन-बस जा के । प्रानु प्रेरित नहिँ निज-बल ता के ॥३॥ एक अविद्या-माया अत्यन्त दुष्टा और दुःख अपिणी है, जिसके अधीन हो कर जीव संसार रूपी कुएँ में पड़ा रहता है। दूसरी विद्या-मायो जो जगत की रचना करती है और समस्त गुण जिसके वश में हैं, उसको अपना बल नहीं है ईश्वर की प्रेरणा से सव करती है ॥३॥ विधा-माया के रचनात्मक गुण का निषेध कर के उसका धर्म प्रभु प्रेरणा में स्थापन करना 'पर्यस्तापह्रति अलंकार' है। ज्ञान मान जहँ एकउ नाही । देख ब्रह्म समान .सब माही.॥ कहिय तात सो परम-विरागी । तन सम सिद्वि तीनि गुन त्यागी झान वह कहलाता है जहाँ एक भी मान नहीं है और सब में समान ब्रह्म ठेखे । हे तात!