पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७६६

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७०५ तृतीय सोपान, अरण्यकाण्ड । है। दुश्चरित्रा स्त्री को रामचन्द्रजी ने एक सच्चरित्र पुरुष के पास भेजा, यह हास्य रसाभास है । लक्ष्मणजी के कोरे उत्तर से शूर्पणना ताड़ गई कि पोनों हमारी मसखरी करते हैं। तब खिसिआनि राष पहिँ गई । रूप भयङ्कर प्रगटत भई ॥ सीतहि समय देखि रघुराई । कहा अनुज सन सैन बुझाई ॥१०॥ तब खिसिया फर रामचन्द्रजी के पास गई और अपनो मीषण रूप प्रगट किया। सीताजी को भयभीत देख कर रघुनाथजी ने छोटे भाई को इशारेसे समझा कर कहा कि इसके नाक और कान काट डालो) ॥१०॥ सीताजी ने भय-सूचक चेष्टा की, तब उनके समाधान के लिये रामचन्द्रजी ने भाई को सङ्केत से नाक कान काटने का श्रादेश किया। इशारे से बात करना 'सूक्ष्म अलंकार' है। बरवा रामायण में गोस्वामीजी ने इस संकेत को इस प्रकार प्रगट किया है ---"वेद नाम कहि अंगुरिन खण्डि अकास । पठयों सूपनखाहि लखन के पाल"। अंगुलियों को दिखा कर वेद का नाम कहा अर्थात् चार अँगुली दिखा कर श्रुति (कान) और श्राकाश (माक) शा खंडन करना सूचित किया। दो०-लछिमन अतिलाघव साँ, नाक कान बिनु कीन्हि । ता के कर रावन कह, मनहुँ चुनौती दीन्हि ॥१७॥ लक्ष्मणजी ने बड़ी शीघ्रता से उसको बिना नाक और कान की कर दिया। ऐसा मालूम होता है मानो उसके हाथ रावण को युद्ध के लिये लतकारा हो ॥१७॥ नाक कान काट कर लक्ष्मणजी ने रावण को संग्राम के लिए उत्तेजित किया ही है। यह 'उक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार है। चौ०-नाक कान बिनु भइ विकरारा । जनु स्खन सैल गेरु कै धारा ॥ खर दूषन पहिँ गइ बिलपाता। धिग धिग तव पौरुष बल माता ॥१॥ नाक कान के बिना विकराल हो गई, ऐसा मालूम होता है मोनो पहाड़ से गेरू की धारा वह चली हो । विलाप करती हुई खर और दूषण के पास गई,वहाँ जाकर कहने लगी-भाई ! तुम्हारे पुरुषार्थ और बल को धिक्कार है, धिक्कार है ॥१॥ तेहि घूछा सब कहेसि बुझाई। जातुधान सुनि सेन बनाई ॥ धाये निलिचर-निकर बरूया । जनु सपच्छ कज्जाल- ठ-गिरि जूधा ॥२॥ उसने पूँछा क्या बात है। तब शूर्पणखा ने सम समझा कर कहा, सुनकर राक्षस ने सेना तैयार की। राक्षस-समूह झुड के झुड दौड़े, वे ऐसे मालूम होते हैं मानों पक्षधारी काले पहाड़ों के समुदाय हो ॥२॥