पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७६७

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७०६ रामचरित मानस । नाना नानाकारा। नानायुध-धर घोर अपारी ॥ सूपनखा आगे करि लोनी । असुभ-रूप चुति नासा होनी ॥३॥ अनेक प्रकार की सवारियों में तरह तरह की सूरतवाले विविध प्रकार के असंख्य भीषण हथियार धारण किये हैं। कान और नाक से रहित अमहल रूप शूर्पणखा को आगे कर लिया ॥३॥ असगुन अमित होहिं भयकारी। गनहिँ न मृत्यु विषस सब झारी।। गहिँ तर्जहि गगन उड़ाही। देखि बिकट पर अति हरषाहीं॥३॥ बहुत से भयङ्कर प्रसगुन होते हैं, पर सारा समुदाय मृत्यु के अधीन हुआ उसे कुछ नहीं समझता है । गर्जते हैं, डाटते हैं और आकाश में उड़ते (उछलते) हैं, भीषण शूरवीरों को देख कर परस्पर प्रसन्न होते हैं ॥४॥ कोउ कह जियत घरहु दोउ भाई । घरि मारहु तिय लेहु छुड़ाई ॥ धूरि पूरि लम-मंडल रहा । राम बोलाइ अनुज सन कहा ॥५॥ कोई कहता है दोनों भाइयों को जीते जी पकड़ लो, कोई कहता है पकड़ कर मार डालो और स्त्री को छीन लो। जब माकाश मण्डल धूल से भर गया, तय रामचन्द्रजी ने छोटे भाई लक्ष्मणजी को बुला कर कहा ॥५|| लेइ जानकिहि जाहु गिरि-कन्दर । आवा निसिचर कटक 'भयङ्कर । रहेहु सजग जुनि मा कै बानी । बले सहित श्री सर धनु णनी ॥६॥ जानकी को लेकर तुम पहाड़ की गुफा में चले जाओ, राक्षसों का भयङ्कर दल समीप भी गया है। सावधान रहना, प्रभु रामचन्द्रजी के वचन सुन कर लक्ष्मणजी हाथ में धनुष पाव लिए हुए सीताजी के सहित चले ॥६॥ देखि राम रिपु-दल चढ़ि आवा । बिहँसि कठिन कोदंड चढ़ावा ॥on रामचन्द्रजी ने देखा कि शत्रु की सेना चल कर समीप आ गई, तब हंस कर अपने कठिन धनुष को चढ़ाया 19॥ इरिगीतिका-छन्द । कोदंड कठिन चढाइ सिर जटजूट बाँधत साह क्यों। मरकत सैल पर लस्त दामिनि कोटि सौं जुग भुजग ज्याँ ॥ कटि कसि निषङ्ग बिसाल भुज गहि, चाप बिसिख सुधारि के। चितवत मनहुँ मृगराज मा गजरोज-घटा निहारि के ॥२॥ कठोर धनुष को चढ़ा कर सिर पर जटा का जूड़ा बाँधते हुए कैसे शोभित हो रहे है। ऐसा मालूम होता है मानों नीलमणि के पहाड़ पर करोड़ों बिजलियों से दो साँप लड़ते हों। i