पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७६८

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७०७ तृतीय सोपान, अरण्यकाण्ड । कमर में तरकस कस कर और विशाल भुजाओं में धनुष-बाण सुधार कर लिये हुए प्रभु रामः चन्द्रजी राक्षसी सेना की ओर निहार रहे हैं, वे ऐसे जान पड़ते हैं मानों हाथियों के झुण्ड की आर देख कर सिंह चौप से निहारता हो ॥२॥ रामचन्द्रजी का शरीर और श्याममणि का पर्वत, जटा का अग्रभाग और विजली, दोनों हाथ और सर्प परस्पर उपमेय उपमान है। नीले पहाइपर करोड़ों विजलियों से दोसाँप लड़ते हो, ऐसा उश्य संसार में होते दिखाई नहीं देता । यह कवि की कल्पनामान अनुकविषया घस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है। उत्तरार्द्ध में उक्त विषया.वस्तूप्रेता है। सो०-आइ गये बगमेल, धरहु धरहु धावत सुभद । जथा बिलोकि अकेल, बाल रबिहि घेरत दनुजा ॥१८॥ धरो धरो करते दौड़ते हुए सब योद्धा अत्यन्त समीप में श्रा गये । जैले बाल-सूर्य को अकेला देख कर दानव घेरते हैं (उसी तरह चारों ओर से रामचन्द्रजी को राक्षसों ने धेर लिया) ||१॥ हेमाद्रि प्रादि अन्यों में लिखा है कि सबेरे सूर्योदय होने पर बीस हजार राक्षस सूर्य को घेर लेते हैं । सन्ध्या करनेवालों के अध्य के पानी के बुन्द वाण होकर उन्हें लगते हैं उससे उनका नाश हो जाता है । बगमेल-शब्द की व्याख्या बालकाण्ड में ३०५ दोहा के नीचे की रिस्पषी देखो। चौ०-प्रभु बिलोकि सर सकहिं न डारी। थकित भई रजनीचर-धारी ॥ सचिव बोलि बोले खर दूषन । यह कोउ नृप-बालक नर-यूपन॥१॥ प्रभु रामचन्द्र जी को देख कर राक्षसों की सेना मोहित हो गई, वे बाण नहीं मार सकते हैं। मंत्री को बुला कर सर दूषण ने कहा-यह कोई राजकुमार मनुष्यों के भूषण हैं ॥१॥ शशु का मोहित होना अनुचित भाव 'ऊर्जखित अलंकार' है। नाग असुर सुर नर मुनि जेते । देखे जिते हत हम केते ॥ हम भरि जनम सुनहु सब भाई । देखी नहिँ असि सुन्दरताई ॥२॥ नाग, दैत्य, देवता, मनुष्य और मुनि जितने हैं, कितने ही को हमने देखा, जीत लिया और मार डाला। पर हे सब भाइयो! सुनो, हमने जन्म भर ऐसी सुन्दरता नहीं देखी ॥२॥ जापि भगिनी कीन्हि कुरूपा । बध लायक नहिं पुरुष अनूपा । देहु तुरत निज नारि दुराई । जीवत भवन जाहु दोउ भाई ॥३॥ यद्यपि हमारी बहिन को इन्होंने कुरूपा कर दिया है, तथापि ये अनुपम पुरुष वध करने योग्य नहीं हैं। अपनी छिपाई हुई सो को तुरन्त दे देव तो जीते जी दोनों भाई अपने घर चले जाय ॥ ३॥ .